भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े नेता
(Leaders Associated with India’s Struggle for Freedom)

सुरेन्द्र नाथ बनर्जी 1848-1925 Surendranath Banerjee
Surendranath Banerjee 1848-1925 सुरेन्द्र नाथ बनर्जी – उदारवादी विचारधारा से परिपूर्ण सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का जन्म बंगाल के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में 10 नवंबर 1848 में हुआ. 1868 में इन्होंने स्नातक की शिक्षा प्राप्त की तथा ये पहले भारतीय थे जिन्होंने 1869 में भारतीय जन सेवा (I.C.S.) की परीक्षा उत्तीर्ण की. 1877 में सिलहर में सहायक दण्डाधिकारी (Asstt. Magistrate) के पद पर इनकी नियुक्ति हुई.
लिटन द्वारा I.C.S. परीक्षा की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष करने पर सुरेन्द्रनाथ ने देश भर में इसके विरुद्ध आंदोलन चलाया. बाद में वे राष्ट्रीय आंदोलन के एक महत्वपूर्ण नेता बन गए. उन्होंने 1876 में ‘इण्डियन एसोसिएशन’ की स्थापना की. उन्होंने ‘बंगाली’ नामक दैनिक समाचार पत्र का सम्पादन भी किया.
सन् 1895 एवं 1902 में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी (Surendranath Banerjee) कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. इन्होंने कलकत्ता कार्पोरेशन एक्ट, विश्व विद्यालय एक्ट तथा बंगाल विभाजन के विरुद्ध पूरे देश में आंदोलन चलाए तथा स्वदेशी आंदोलन एवं विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार आंदोलन का सफल नेतृत्व किया. 1925 में इनकी मृत्यु हो गई.
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी एक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राजनेता और शिक्षाविद थे। उन्हें ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ के शुरुआती नेताओं में से एक माना जाता है। उन्होंने भारतीयों के अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश सरकार के खिलाफ संघर्ष किया।
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का जन्म 10 नवंबर 1848 को बंगाल के कोलकाता (तब कलकत्ता) में हुआ था। उनका परिवार पढ़ा-लिखा और समृद्ध था, जिसने उनकी शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी को ‘भारतीय राजनीति का ग्रैंड ओल्ड मैन’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक लंबे समय तक सक्रिय भूमिका निभाई और भारतीय राजनीति को नेतृत्व दिया। उनकी दीर्घकालिक सेवा और त्याग के कारण उन्हें यह उपाधि दी गई।
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी की कई प्रमुख उपलब्धियाँ हैं:
वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक नेताओं में से एक थे।
उन्होंने 1876 में ‘इंडियन नेशनल एसोसिएशन’ की स्थापना की, जो बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ मिल गई।
उन्होंने अंग्रेज़ी प्रशासन में भारतीयों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और ‘लोक सेवा परीक्षा’ (ICS) में भारतीयों की भागीदारी के लिए आवाज उठाई।
सुरेन्द्र नाथ ने ‘बंगाल विभाजन’ के खिलाफ व्यापक विरोध का नेतृत्व किया, जिससे विभाजन रद्द हो गया।
1905 में ब्रिटिश सरकार ने बंगाल को धार्मिक आधार पर विभाजित करने का प्रयास किया। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने इसका कड़ा विरोध किया और इसके खिलाफ एक मजबूत आंदोलन चलाया। उनके नेतृत्व में हुए विरोध प्रदर्शन और रैलियों के कारण 1911 में बंगाल विभाजन को रद्द कर दिया गया।
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने ‘रिपन कॉलेज’ (अब सुरेन्द्रनाथ कॉलेज) की स्थापना की, जो आज भी कोलकाता में एक प्रमुख शैक्षणिक संस्थान है। वह यह मानते थे कि शिक्षा भारतीयों के लिए स्वतंत्रता और अधिकार प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन है।
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के शुरुआती नेताओं में से एक थे। वह कांग्रेस के माध्यम से भारतीयों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे और उन्होंने कांग्रेस के शुरुआती सत्रों में सक्रिय रूप से भाग लिया। वह 1895 और 1902 में कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने।
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने 1869 में ‘भारतीय लोक सेवा परीक्षा’ (Indian Civil Services) पास की थी, लेकिन बाद में एक प्रशासनिक त्रुटि के आधार पर उन्हें सेवा से निकाल दिया गया। इस अन्याय के खिलाफ उन्होंने कानूनी लड़ाई लड़ी, लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों ने उनके पक्ष में फैसला नहीं दिया। इसके बाद उन्होंने भारतीयों के अधिकारों के लिए संघर्ष का रास्ता चुना।
हालांकि सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीयों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया, लेकिन वे गांधी जी की तरह पूर्ण स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे थे। वह मानते थे कि ब्रिटिश प्रशासन में सुधार और भारतीयों के लिए अधिक अधिकार और भागीदारी की मांग ही सही रास्ता है। इसके कारण उनका दृष्टिकोण कभी-कभी उग्र राष्ट्रवादियों से अलग था।
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी की मृत्यु 6 अगस्त 1925 को हुई। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में, उन्होंने शिक्षा और राजनीति में योगदान देना जारी रखा। उनका जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरणादायक रहा, और उनकी विरासत आज भी भारतीय समाज में सम्मानित है।
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शुरुआती चरण में भारतीयों को संगठित करने और अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए प्रेरित करने में सफल रहा। उनके शांतिपूर्ण और सुधारवादी दृष्टिकोण ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अन्य नेताओं को ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए एक मार्गदर्शन प्रदान किया।