वैदिक साहित्य
- वैदिक साहित्य आर्यों की सभ्यता तथा संस्कृति को जानने का एक मात्र साधन है.
- इसमें चारों वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक तथा उपनिषद् आदि शामिल हैं.
पूर्व वैदिक काल का साहित्य या श्रुति साहित्य
(1) वेद-
डा. राधाकृष्णन के अनुसार- ‘‘प्राचीन काल की कल्पना में जो कुछ सर्वाधिक रोचक है, उसकी जानकारी वेदों से होती है”. वेदों की संख्या चार हैं और ये संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं.
- ऋग्वेद
- सामवेद
- यजुर्वेद
- अथर्ववेद
(i) ऋग्वेद-
- ऋग्वेद 1017 सूक्त और 10 मण्डलों में विभक्त है.
- 11 बालशिल्प सूक्तों को मिलाकर कुल सूक्तों की संख्या 1028 है व इनमें देवताओं की सुन्दर ढंग से स्तुतियां की गयी हैं.
- प्रत्येक सूक्त और मंत्र के साथ उसके ऋषि और देवता का नाम दिया गया है.
- ऋषियों में कुछ स्त्रियां भी शामिल हैं. ‘विदर्भराज’ की पुत्री और ‘अगस्त्य’ की पत्नी लोपामुद्रा का नाम उल्लेखनीय है.
- इस समय ऋग्वेद की तीन शाखाएं उपलब्ध हैं.-
- कोयुम,
- राणानीय और
- जैमिनीय
(ii) सामवेद-
- सामवेद में कुल 1549 मन्त्र हैं.
- इसके 75 मन्त्र अपने हैं. और शेष ऋग्वेद से लिये गये हैं.
- इसके मन्त्र गायन सम्बन्धी हैं तथा पुराणों के अनुसार सामवेद की सैंकड़ों शाखाएं बताई गयी हैं.
(iii) यजुर्वेद-
कर्मकाण्ड प्रधान यजुर्वेद वेद दो भागों में विभाजित है.
- कृष्ण यजुर्वेद और
- शुक्ल यजुर्वेद
- कृष्ण यजुर्वेद में मन्त्रों का संग्रह हैं जबकि शुक्ल यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ गद्यात्मक भाग भी है.
- यजुर्वेद के कुल 40 अध्याय हैं.
- इस वेद के अध्ययन से आर्यों की धार्मिक तथा सामाजिक दशा का ज्ञान होता है.
(iv) अथर्ववेद-
- अथर्ववेद में 731 सूक्त और 20 अध्याय हैं.
- अथर्ववेद की दो शाखाएं हैं-
- शौनक और
- पिप्लाद.
- इस वेद में चिकित्सा सम्बन्धी बहुत अधिक सामग्री है तथा जादू-टोना और भूत पिशाचों के बारे में उल्लेख मिलता है.
- प्राचीन भारत की सभ्यता का ज्ञान प्राप्त करने के लिये यह वेद बहुत ही उपयोगी है.
- इसमें आर्यों के दार्शनिक विचारों का भी उल्लेख है.
(2) ब्राह्मण ग्रन्थ-
- वेदों को समझाने के लिये गद्य में प्रत्येक वेद के .
- ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हुई.
- ऋग्वेद का प्रधान ब्राह्मण ग्रन्थ ‘ऐतरेय’ है. इसकी रचना सम्भवतः महोदास ऐतरेय ने की थी.
- ‘कौषतीर’ और ‘सांख्यायन’ भी इसके ब्राह्मण ग्रन्थ हैं.
- सामवेद के-ताण्डय ब्राह्मण, पडविंश ब्राह्मण और जैमिनीय ब्राह्मण सभी ब्राह्मण ग्रन्थों में सबसे पुराने माने जाते हैं.
- यजुर्वेद के-कृष्ण यजुर्वेद का तेत्तरीय ब्राह्मण और शुक्ल यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण है. इसमें 100 अध्याय हैं.
- अथर्ववेद का-गोपथ ब्राह्मण है.
- विद्वानों के अनुसार तैत्तरीय, शतपथ और गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थों का बड़ा ही ऐतिहासिक महत्व है.
(3) आरण्यक-
- ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्तिम भाग को आरण्यक कहा जाता है.
- आरण्यक ‘वन पुस्तकें’ हैं जिनमें जीवन के रहस्य व दर्शन का विस्तार से वर्णन किया गया है.
- इनमें आत्मा और ब्रह्म के बारे में ऊँचे विचार प्राप्त होते हैं.
(4) उपनिषद्-
- उपनिषद् का विकास आरण्यकों से हुआ.
- उपनिषद् अध्यात्मिक ज्ञान का भण्डार माने जाते हैं.
- इसे “वेदान्त'” भी कहा जाता है.
- उपनिषद् के शाब्दिक अर्थ से तात्पर्य उस विद्या से है जो गुरू के समीप बैठ कर एकान्त में सीखी जाती है.
- मुक्तिकोपनिषद् में 108 उपनिषदों की सूची मिलती है, किन्तु स्वामी शंकराचार्य ने केवल 11 उपनिषदों की टीका की है.
- प्रसिद्ध उपनिषद् हैं-
- ईश,
- प्रश्न,
- मुण्डक,
- केन,
- कठ,
- माण्डूक्य,
- तैत्तिरीय,
- ऐतरेय,
- छन्दोग्य,
- वृहदारण्यक और
- श्वेतश्वतर.
- इसमें भी छन्दोग्य और वृहदारण्यक अधिक प्राचीन और महत्वपूर्ण हैं.
उत्तर वैदिक काल का साहित्य
(1) वेदांग-
- वेदों का अर्थ समझने व सूक्तियों का सही उच्चारण करने के लिये वेदांगों की रचना की गयी है.
- ये संख्या में छहः हैं.
- शिक्षा
- कल्प
- व्याकरण
- निरूक्त
- छन्द
- ज्योतिष
(i) शिक्षा-
- स्वरों का उच्चारण करने हेतु .
(ii) कल्प-
- इसमें नियम का सम्पादन किया गया है.
(iii) व्याकरण-
- इसमें व्याकरण के नामों, धातुओं, उपसर्ग, समासों और संधियों आदि का उल्लेख किया गया है.
(iv) निरूक्त-
- यास्क द्वारा रचित इस ग्रन्थ में वैदिक शब्दों के अर्थ और व्याख्या दी गई है.
(v) छन्द-
- कई छन्दों की रचना हुई परन्तु केवल ‘पिंगल’ रचित छन्द शास्त्र उपलब्ध है.
(vi) ज्योतिष-
- इसमें ज्योतिष के ज्ञान का प्रतिपादन किया गया है.
(2) सूत्र (Sutras)-
- इस साहित्य की रचना ई.पू. छठी शताब्दी के बाद तथा ई. संवत् के आसपास हुई .
- इस साहित्य में कम-से-कम शब्दों में अधिक से अधिक बात को कहने का प्रयास हुआ है.
- ये संख्या में मुख्यतः चार हैं
कल्प सूत्र-
कर्मकाण्ड व रीति रिवाजों सम्बन्धी.
श्रौत सूत्र-
महायज्ञ सम्वन्धी.
गृह सूत्र-
गृह सम्बन्धी संस्कार.
धर्मसूत्र-
धर्म अथवा विधि से सम्बन्धित ..
शुल्व सूत्र-
बलि देवी और अग्नि देवी के परिमाण और रचना की चर्चा की गयी है (ये श्रौत सूत्रों से सम्बन्धित हैं .) .
(3) उपवेद-
- प्रत्येक वेद का एक उपवेद है.
आयुर्वेद-
ऋग्वेद का उपवेद है व इसमें औषधि विज्ञान का वर्णन है.
धनुर्वेद-
यजुर्वेद का उपवेद है. इसमें युद्ध कला का वर्णन है.
गन्धर्ववेद-
सामवेद का उपवेद है. इससे नृत्य और संगीत की जानकारी मिलती है.
शिल्पवेद-
अथर्ववेद का उपवेद है. इसमें भवन निर्माण कला का वर्णन है.
(4) षट्दर्शन-
- उपनिषदों के दर्शन को भारतीय ऋषियों ने छह भागों में विभाजित किया है.
- इन्हें ही घट्दर्शन कहा जाता है.
- इनमें आत्मा, परमात्मा, जीवन और मृत्यु आदि से सम्बन्धित दार्शनिकता का वर्णन है.
- षट्दर्शन निम्नलिखित हैं-
- कपिल का सांख्यदर्शन
- पतंजलि का योगदर्शन
- गौतम का न्याय दर्शन
- कणाद का वैशेषिक दर्शन
- जैमिनी का पूर्व मीमांसा
- व्यास का उत्तर मीमांसा
(5) पुराण-
- ‘पुराण’ शब्द का अर्थ है ‘पुरानी कहानी’.
- यह रामायण, महाभारत की भांति प्राचीन काल से चले आ रहे हैं.
- पुराणों में निम्न पाँच बातों का वर्णन है-
- सर्ग-सृष्टि की उत्पत्ति
- प्रति सर्ग-सृष्टि का विस्तार, प्रलय तथा पुनः उत्पत्ति.
- वंश-भिन्न-भिन्न राजाओं तथा ऋषियों के वंशजों का वर्णन
- मन्वन्तर-संसार का काल विभाग और प्रत्येक काल की प्रधान घटनाओं का उल्लेख .
- वंशानुचरित-विभिन्न वंशों के प्रतापी तथा यशस्वी राजाओं के कार्यों का वर्णन.
पुराण कुल संख्या में 36 हैं. 18 बड़े पुराण और 18 छोटे पुराण. बड़े पुराणों में 6 विष्णु, 6 ब्रह्मा तथा 6 शिव से सम्बन्ध रखते हैं.
शैवं पुराण-
- शिव,
- लिंग,
- स्कन्द,
- अग्नि,
- मत्स्य,
- कूर्म.
वैष्णव पुराण-
- विष्णु,
- भागवत,
- नारदीय,
- गरुड़,
- पद्म,
- वराह .
ब्रह्म पुराण-
- ब्रह्मा,
- ब्रह्माण्ड,
- ब्रह्मवैवर्त,
- मार्कण्डेय,
- भविष्य और
- वामन .
(6) मनु स्मृति-
- इसमें मनु ने जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास नामक चार भागों में बांटा है.
ऋग्वैदिक भारत
ऋग्वेद का काल-
- ऋग्वेद विश्व की सबसे प्राचीन पुस्तक है.
- इसके रचनाकाल के विषय में विद्वानों में शताब्दियों के स्थान पर सहस्राब्दियों का अन्तर है.
1. प्रो. मैक्स मूलर (Max Mueller) का मत है कि ऋग्वेद की रचना 1000 ई. पू. तक पूर्ण हो गयी होगी.
2. जे. हैर्तल (J. Hertel) के अनुसार ऋग्वेद का आरम्भ उत्तर पश्चिमी भारत में नहीं, बल्कि ईरान में 550 ई. पू. के लगभग हुआ .
3. जी. ह्यूसिंग (G. Husing) ने लिखा है कि लगभग 1000 ई. पू. से भारतीय आर्मेनिया से अफग़ानिस्तान की ओर जाने लगे और ऋग्वैदिक काल का प्रारम्भ अफग़ानिस्तान में हुआ. दूसरी शती ई. पू. में भी इन स्रोतों का संकलन पूर्ण नहीं हुआ था.
4. प्रो. जैकोबी (Jacobi) और बाल गंगाधर तिलक (Bal Gangadhar Tilak) ने नक्षत्रीय गणना के आधार पर ऋग्वेद का रचना काल क्रमशः ई. पू. तीसरी सहस्राब्दी (3000ई.पू.) और 6000 ई. पू. बताया है.
5. ओल्डन बर्ग (Oldenberg) के अनुसार 500 ई. पू. लगभग जब बौद्ध धर्म का उदय हुआ था तो समस्त वैदिक साहित्य अस्तित्व में आ चुका था तथा वैदिक साहित्य का आरम्भ 1000 ई. पू. के लगभग हुआ प्रतीत होता है.
6. प्राचीन ‘हिट्टाइट’ राज्य की राजधानी ‘बोगाजकोई’ में पाई गई मिट्टी की पट्टिकाओं से ऋग्वेद के काल पर प्रकाश पड़ता है कि पूर्वतम वैदिक श्लोकों की रचना लगभग 1500 ई. पू. के बाद नहीं हुई थी.
7. डा. विन्टरनिट्ज (Dr. Winterniz) का कथन है कि “इस विकास का आरम्भ हमें शायद 2000 या 2500 ई. पू. के लगभग निश्चित करना होगा और अन्त में 750 और 500 ई. पू. के मध्य में . किन्तु सबसे अच्छा रास्ता तो यह है कि किसी भी निश्चित तिथि से बचकर ही निकल जाना चाहिए और बहुत ही पुराने और बहुत ही नये युग के उग्र विचारों से दूर रहना चाहिए.”
ऋग्वैदिक काल की विशेषताएँ
राजनैतिक दशा
(i) राजनीतिक संगठन–
- डा. मुखर्जी ने ऋग्वैदिक भारत के शासन विधान को निम्नलिखित आरोही क्रम में प्रस्तुत किया है .
शासन की इकाई | मुखिया |
गृह, कुल या परिवार | कुलप या पिता |
ग्राम या गाँव | ग्रामणी |
विष या कबीला या कैण्टन (Canton) | विषयपति |
जन | राजा |
- उस समय पैतृक राजतन्त्र ही सामान्य शासन प्रबन्ध के रूप में प्रचलित था.
- गणपति के अधीन ‘गण’ का भी उल्लेख मिलता है.
- सम्भवतः ऋग्वैदिक युग में उन गणतन्त्रों के बीच मौजूद हो जो बौद्ध काल में देखने को मिले.
(ii) राजा का स्थान-
- राजा का पद सामान्यतः पैतृक था मगर ऐसे भी प्रमाण मिले हैं कि प्रजागण राजवंश या सामन्तों में से किसी भी उपयुक्त व्यक्ति को राजा चुन लेते थे.
- ऋग्वेद में राजा को ‘गोप जनस्य’ (प्रजा का रक्षक) और ‘पुराम भेत्ता’ (नगरों पर विजय पाने वाला) कहा गया है.
- राजा को ऊँचे आदर्शों का पालन करना पड़ता था.
- उसे शपथ लेनी पड़ती थी-“मेरा जीवन समाप्त कर दिया जाए, मेरी सन्तान के टुकड़े-टुकड़े कर दिये जाएं, यदि मैं कोई कार्य जनता की इच्छा के विरूद्ध करूँ.”
(iii) मन्त्री-
- राजा, केन्द्रीय शासन अनेक मन्त्रियों, सेनापति, पुरोहित आदि की सहायता से चलाता था.
- सर्व प्रमुख पुरोहित या पुरोधा था.
- वह राजा का मित्र, उपदेशक, मार्गदर्शक तथा धार्मिक कार्यों का प्रतिनिधि भी था.
- डा. कीथ (Keith) के अनुसार “वैदिक पुरोहित” ब्राह्मण राजनीतिज्ञों का अग्रगामी था.
- राजदरबार में सेनानी-सेना का नेता तथा ग्रामीण-ग्रामों का प्रतिनिधि तथा राजा के व्यक्तिगत कर्मचारियों को ‘उपस्ति’ और ‘इभ्य’ कहते थे.
(iv) सभा तथा समिति-
- ऋग्वेद में कई स्थानों पर सभा तथा समिति का उल्लेख है लेकिन इनकी रचना और कर्तव्यों के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती.
- डा. कीथ के अनुसार- ‘सभा उस स्थान का नाम था जहां समिति की बैठक होती थी.’
- ‘सभा सामन्तों तथा बड़े बूढ़ों की सभा थी और समिति जन साधारण की .’ -लुडविग (Ludwig).
- अथर्ववेद में सभा को समिति की बहन और इन्हें ‘प्रजापति’ की दो कन्याओं के रूप में स्वीकार किया गया है.
- सर्वमान्य विचार यह है कि ये प्रजा द्वारा निर्वाचित दो परिषदें थीं.
- ये राजा की शक्ति व अधिकारों पर अंकुश रखती थीं. दुष्ट शासक को हटा तथा नये राजा को निर्वाचित कर सकती थीं.
- इस प्रकार ये राष्ट्रीय न्यायालय के रूप में भी कार्य करती थी.
(v) विधाता-
- डा. जयसवाल (Dr. Jaiswal) के अनुसार ‘विधाता’ परिषद् समिति से पहले अस्तित्व में आ चुकी थी.
- प्रतीत होता है कि विधाता जन्मदात्री संस्था थी–जिससे ‘सभा’, ‘समिति’ और ‘सेना’ की उत्पत्ति हुई.
- ‘विधाता’ नागरिक, सैनिक और धार्मिक कार्यों से सम्बन्धित थी.
(vi) न्याय-
- कानून या रीति के लिये उपयुक्त शब्द ऋग्वेद में “धर्मन” है.
- ‘उग्र’ तथा ‘जीव-गृभ’ (जीवित पकड़ना) शब्दों को पुलिस कर्मचारियों के पदों का नाम समझा गया है.
- झगड़ों के निर्णयक को “माध्यम-सि” (मध्य में पड़ने वाला) कहा जाता था.
- गाँव के न्यायाधीश को तैत्तिरीय संहिता में ‘ग्राम्यवादिन’ कहा गया है.
- उस समय ऑरडियल प्रथा (Ordeal System) (गर्म कुल्हाड़ी, अग्नि, पानी आदि से परीक्षा लेना) भी प्रचलित थी.
- सूली पर टांग देना सामान्य दण्ड था.
- छोटे अपराधों हेतु अपराधी को जुर्माना या खम्बे से बांध देना-आदि दण्ड थे.
(vii) युद्ध विधि-
- आर्य पैदल, घुड़सवार व रथों पर चढ़कर, धनुष,बरची, भाले, कुल्हाड़ी आदि से लड़ते थे.
- कवच और ढाल का प्रयोग करते थे.
- सोये हुए अथवा घायल व्यक्ति पर वार नहीं करते थे.
सामाजिक जीवन
(i) पारिवारिक जीवन-
- ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि आर्यों ने खानाबदोशी जीवन छोड़कर मकान बनाकर पवित्र, सादा और सरल पारिवारिक जीवन आरम्भ कर दिया था.
- सबसे ज्यादा आयु वाला अर्थात् ‘पिता’ एरिवार का मुखिया होता था व सभी सदस्य उसकी आज्ञा का पालन करते थे.
- पारिवारिक जीवन बड़ा ही अनुशासित होता था.
(ii) स्त्रियों की स्थिति-
- स्त्रियों को समाज में आदर व महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था.
- पर्दा प्रथा व बालविवाह प्रथा का प्रचलन नहीं था.
- दहेज की मांग भी नहीं थी.
- विधवा विवाह का प्रचलन था.
- स्त्रियां पति के साथ यज्ञ में भाग लेती थीं.
- प्रायः एक ही विवाह किया जाता था मगर राजा व अमीर लोग अधिक स्त्रियां भी रखते थे.
- नारी को शिक्षा प्राप्त करने, नृत्य संगीत आदि की स्वतंत्रता थी.
(iii) भोजन तथा पहनावा-
- गेहूँ उनको मुख्य भोजन था.
- दूध व दूध से बनी वस्तुएँ, दाल, सब्जियां आदि का भी प्रयोग करते थे.
- मांस भी खाते थे.
- उनका मुख्य पेय ‘सोमरस’ था.
- वे अपनी वेशभूषा पर भी विशेष ध्यान देते थे.
- सूती तथा ऊनी वस्त्रों, धोती, कुर्ता, बनियान, पगड़ी आदि का प्रयोग करते थे.
- सोने और चाँदी आदि के आभूषणों का भी प्रयोग करते थे.
(iv) खेल तथा मनोरंजन–
- शिकार खेलना, रथों को दौड़ाना, नृत्य, संगीत, जानवरों की लड़ाई आदि से वे अपना मनोरंजन करते थे.
(v) शिक्षा-
- नैतिकता और बुद्धि का विकास व आचरण की शुद्धता हेतु प्रायः धार्मिक शिक्षा मौखिक रूप से दी जाती थी.
- वाद-विवाद प्रतियोगिता भी होती थी.
(vi) वर्ण व्यवस्था-
- ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त में कहा गया है कि ‘‘ब्रह्मा के मुख से बाह्मण की, भुजा से क्षत्रिय की, पेट से वैश्य की तथा पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई है.
- अतः उस समय समाज कर्म के आधार पर चार वर्गों में बंटा था.
आर्थिक जीवन
(i) कृषि-
- आर्यों ने कृषि को अपना मुख्य व्यवसाय बना लिया था.
- वे गेहूँ तथा जौ मुख्यतः उगाते थे.
- दो प्रकार की भूमि थी उर्वरा (कृषि योग्य उपजाऊ भूमि) तथा बंजर .
- ऋग्वेद में 24 बार कृषि का उल्लेख आया है. कृषि सम्बन्धी कुछ शब्द निम्नलिखित हैं-
शब्द | अर्थ |
उर्वरा | जुते हुए (कृषि योग्य) खेत |
ऊर्दर | अनाज नापने वाला यन्त्र |
करीष | गोबर की खाद |
वृक | बैल |
लांगल | हल |
सीता | हल से बनी लाली |
अवत | कूप |
कीवाश | हल लगाने वाला |
स्थिचि | अनाज रखने का कोठार |
पर्जन्य | बादल |
(ii) पशुपालन-
- यह उनका दूसरा मुख्य व्यवसाय था तथा इन्हें ही उनका धन समझा जाता था.
- वे प्रायः गाय, बैल, भैंस, घोड़े, बकरी आदि पालते थे.
(iii) व्यापार-
- उन दिनों वस्तुओं के आदान-प्रदान (Barter System) द्वारा लेन-देन होता था.
- सिक्के का प्रचलन नहीं था.
- कुछ विद्वानों ने ऋग्वेद में आये शब्द “भूषण’ को उन दिनों प्रचलित सिक्का ‘‘निष्क” माना है.
(iv) अन्य व्यवसाय-
- कुम्हार, सुनार, लुहार, बढ़ई, जुलाहा, वैद्य आदि के व्यवसाय प्रचलित थे .
धार्मिक जीवन
(i) प्रकृति की उपासना-
- आर्य लोग प्राकृतिक शक्तियों को जिन पर उनका नियन्त्रण नहीं था देवता मानकर पूजने लगे थे.
- आंधी (हवा), तूफान, वर्षा, सूर्य, प्राकृतिक प्रकोपों की वे उपासना करने लगे थे.
- वे विभिन्न देवताओं को पूजते थे.
(a) आकाश के देवता-
- सूर्य, द्यौस, मित्र, पूषन, उषा, विष्णु, सवितृ, अश्विन, आदित्य .
(b) अन्तरिक्ष के देवता-
- इन्द्र, मरुत, रुद्र, वायु, पर्जन्य, आपमातरिश्वन, एक पाद, त्रिताप्य .
(c) पृथ्वी के देवता-
- अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, सरस्वती आदि .
(ii) यज्ञ और बलि–
- अनेक प्रकार के यज्ञों व बलियों के द्वारा देवताओं को प्रसन्न करने का प्रयास करते थे.
- अग्नि के माध्यम से देवताओं को अनेक वस्तुएं समर्पित की जाती थीं.
(iii) एकेश्वरवाद-
- ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों से ज्ञात होता है कि आर्य लोग यह मानते थे कि ईश्वर एक है जो सभी देवताओं को शक्ति देता है.
उत्तर वैदिक सभ्यता
- उत्तर वैदिक काल से भाव उस काल से है जब यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद, बाह्मण ग्रंथ, आरण्यक तथा उपनिषद रचे गये.
- इस काल की निम्नतम तिथि 600 ई. पू. तक पहुंच जाती है. इस काल में आर्य सभ्यता पूर्व और दक्षिण की ओर बढ़ने लगी.
- डा. एन. के. दत्त के अनुसार-हिमाचल और विन्ध्याचल के मध्य प्रायः सम्पूर्ण भारत और सम्भवतः इसके बाहर के भाग भी आर्यो की ज्ञान सीमा में आ चुके थे.
राजनैतिक दशा
शक्तिशाली राज्यों का उदय-
- उत्तर वैदिक काल में गंधार, कुरू, पांचाल, कौशल, काशी आदि शक्तिशाली राज्यों का उदय हो चुका था.
- लौह हथियारों की सहायता से अनेक राज्यों को आर्यों ने जीता.
सभा और समिति का अन्त–
- सभा और समिति का महत्व कम होने के साथ धीरे-धीरे समाप्त हो गया.
- इसमें स्त्रियों की भागेदारी का अन्त और धनी लोगों का अधिकार हो गया.
राजा की शक्ति में वृद्धि-
- राजा का पद पैतृक व निरंकुश हो गया था.
- फिर भी वह प्रजा के हितों का ध्यान रखता था.
- लोगों को राजा के चुनाव में कुछ शक्ति प्राप्त थी.
- राजा अधिराज, राजाधिराज, एकराट्, विराट्, और स्वराज आदि उपाधियां धारण करते थे.
- राजा राजसूय, वाजपेय, अश्वमेघ, पुरूषमेघ, सर्वमेघ, आदि यज्ञ करवाते थे.
स्थानों के नये नामकरण-
- जनपद के नाम ‘प्रदेश’ व ‘राष्ट्र’ शब्द का भी प्रयोग एक ‘प्रदेश के लिये किया गया, उत्तरी भारत के लिये आर्यों ने “आर्यावर्त’ शब्द का प्रयोग किया.
अधिक अधिकारी-
- राज्य विस्तार होने के कारण कई नये अधिकारी रखे गये जैसे संग्रही (कर तथा भेट एकत्रित करने वाला), पुरोहित, सेनापति, व ग्रामणी के अलावा द्वारपाल, उच्च न्यायाधीश आदि .
युद्ध विधि-
- राजा की स्थाई सेना नहीं होती थी.
- आवश्यकता पड़ने पर कबीलों की टुकड़ियां एकत्र कर ली जाती थीं.
- युद्ध में घोड़ों, रथों, लोहे के हथियारों, अग्नि शस्त्रों, विष अस्त्रों तथा कूटनीति का भी प्रयोग होने लगा था.
सामाजिक जीवन
पारिवारिक जीवन-
- समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार थी जिसका मुखिया सबसे वृद्ध व्यक्ति (पिता) होता था.
- सभी सदस्य उसकी आज्ञा का पालन करते थे.
भोजन और वस्त्र-
- वे सब्जी, अनाज फल आदि सादा भोजन करते थे.
- लोग मांसाहारी भी थे.
- वे सूती और विशेषतः ऊनी और रेशमी वस्त्र पसन्द करते थे.
स्त्रियों की दशा-
- स्त्रियों का महत्व समाज में कम हो गया था.
- उसके पैतृक सम्पत्ति पर अधिकार, राजनीतिक कार्यों में भाग, शिक्षा तथा स्वतंत्रता में बाधाएं आने लगी थीं.
- बहु विवाह प्रथा भी प्रचलित थीं.
जाति प्रथा-
- जाति प्रथा में कठोरता आ गयी थी.
- “ब्राह्मणों” का महत्व बढ़ गया था. उन्हें ‘‘भूदेव’ कहा जाता था.
- लेकिन राजा की शक्तियां क्षत्रियों के हाथों में आ चुकी थीं.
चार आश्रम-
- मानव जीवन काल को 100 वर्षों का मान कर इसे चार आश्रमों में बांटा गया था.
ब्रह्मचर्य-
- 25 वर्ष तक गुरू के पास रहकर शिक्षा ग्रहण करना और पवित्र ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करना.
गृहस्थ-
- 25 से 50 वर्ष तक विवाह करके परिवार का भरण पोषण करना.
वान प्रस्थ-
- 50 से 75 वर्ष तक घर बार छोड़ कर समाज सेवा व स्वयं को सन्यास आश्रम हेतु तैयार करना.
संन्यास-
- 75 वर्ष की आयु के बाद सांसारिक मोह माया त्याग कर मोक्ष पाने हेतु प्रयत्न करना.
मनोरंजन–
- लोग नृत्य, संगीत, जुआ, रथ दौड़, जानवरों के युद्ध, शिकार, नाटक आदि के द्वारा अपना मनोरंजन करते थे.
शिक्षा–
- गुरू के माध्यम से ‘गुरूकुल’ में ‘मौखिक’ तथा ‘निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी.
- शिष्य को गुरु दक्षिणा के रूप में गुरु को कुछ न कुछ भेट अवश्य करना पड़ता था.
आर्थिक जीवन
कृषि और पशुपालन-
- इन व्यवसायों ने इस काल में उन्नति की.
- कृषि सम्बन्धी यन्त्रों का विस्तार तथा सिंचाई और खाद से लोग अच्छी तरह परिचित हो गये थे.
व्यापार-
- आन्तरिक और विदेशी व्यापार बैल गाड़ियों, नावों तथा जहाजों द्वारा होने लगा था.
- ‘शतपथ ब्राह्मण की ‘जल प्रलय’ की कथा के आधार पर विद्वानों ने सिद्ध किया है कि उन दिनों भारत का व्यपार ‘बेबीलोन’ के साथ भी था.
धार्मिक जीवन
नये देवता-
- ब्रह्मा, विष्णु, शिव, राम, कृष्ण आदि की पूजा होने लगी.
- अवतारवाद में विश्वास व मूर्ति पूजा का प्रचलन हो गया था.
यज्ञों की संख्या में वृद्धि-
- इस काल में यज्ञों की संख्या में वृद्धि के साथ यज्ञों में पुरोहितों की संख्या में भी वृद्धि हो गयी थी.
- ऋग्वेद में सात प्रकार के पुरोहितों का उल्लेख है, इस काल में यह संख्या 17 हो गयी थी.
ब्राह्मणों का महत्व-
- उन्हें “भूदेवा’ कहा जाता था.
- छुआ-छूत, नवीन संस्कारों, रीति-रिवाजों आदि का प्रचलन हो गया था.
जादू टोनों में विश्वास-
- लोग अन्धविश्वासी हो गये थे.
- भूत प्रेतों, बीमारी आदि से छुटकारा पाने और युद्ध जीतने आदि के लिये जादू टोनों का सहारा लिया जाता था.
नवीन धार्मिक नीति-
- लोग ‘कर्म सिद्धान्त’ में विश्वास करने लगे थे तथा ‘मोक्ष प्राप्त करने के लिये ‘सुकर्म करने में विश्वास करते थे.
पूजा की नवीन विधि-
- लोग मूर्तिपूजा, कर्मकाण्ड, बलि प्रथा, यज्ञ व ब्राह्मणों को दान देना आदि में विश्वास करने लगे.
- ‘राजसूय यज्ञ करने वाले पण्डित को बहुत अधिक दान दिया जाता था.
पूर्ववैदिक और उत्तर वैदिक संस्कृति में अन्तर
राजनीतिक जीवन में अन्तर
- उत्तर वैदिक काल में बड़े साम्राज्य का उदय हुआ.
- राजा की शक्ति में वृद्धि हुई.
- सभा तथा समिति का महत्व कम हुआ व फिर यह समाप्त हो गयी.
- सेना का संचालन राजा के स्थान पर ‘सेनापति’ द्वारा किया जाने लगा.
- राजा के सहायक अधिकारियों की संख्या में वृद्धि हुई.
- अग्नि शस्त्र, विष अस्त्र आदि खतरनाक हथियारों का प्रयोग होना शुरू हो गया था.
आर्थिक जीवन में अन्तर
- अब कृषि तथा पशुपालन में उन्नति हुई.
- तकनीकी और उद्योगों का विकास हुआ.
- वस्तु विनिमय के स्थान पर मुद्राओं (सिक्कों) का प्रचलन हुआ.
- व्यापारियों एवम् कलाकारों के संघ बनने लगे.
सामाजिक जीवन में अन्तर
- पूर्व वैदिक काल में संयुक्त परिवार का विकास हुआ जबकि अब (उत्तर वैदिक काल में) एकाकी परिवारों का अधिक विकास हुआ.
- ऋग्वैदिक वर्गों के स्थान पर जाति प्रथा का विकास हुआ.
- उत्तर वैदिक काल में मानव जीवन को चार आश्रमों में विभक्त किया गया.
- अब स्त्रियों के सम्मान व महत्व में कमी आ गयी थी.
- अब मनोरंजन के साधनों में ‘जुए’ जैसी सामाजिक बुराई का प्रचलन हो गया था.
- जाति प्रथा में कठोरता आने से अब (उत्तर वैदिक काल में) अन्तर्जातीय विवाहों को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा.
धार्मिक जीवन में अन्तर
- अब अनेक नये देवताओं की पूजा होने लगी थी.
- अब (उत्तर वैदिक काल में) कर्मकाण्डों में वृद्धि हुई.
- मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ.
- जादू टोनों में लोगों का विश्वास बढ़ गया.
- धार्मिक जीवन में अब ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ़ गया था.
वैदिक सभ्यता और सिन्धु सभ्यता में अन्तर
- सिन्धु सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी जबकि वैदिक सभ्यता ग्रामीण थी.
- सिन्धु सभ्यता के लोग पक्के ईटों के मकानों में रहते थे व आर्य लकड़ियों आदि के बने कच्चे मकानों में रहते थे.
- सैन्ध्व सभ्यता के लोग शान्ति प्रिय थे व आर्य युद्ध प्रिय.
- सिन्धु सभ्यता के लोग व्यापार को महत्व देते थे और आर्य कृषि पशुपालन को.
- सिन्धु सभ्यता के लोग ‘‘लोहे’ से परिचित नहीं थे जबकि आये लोहे की धातु का उपयोग करते थे.
- सिन्धु सभ्यता के लोग “घोड़े’ से परिचित नहीं थे.
- सिन्धु सभ्यता के लोग मूर्ति पूजक थे तथा ऋग्वैदिक आर्य “उपासक थे.
- सिन्धु सभ्यता के लोग मृतकों के शवों को दफनाते थे, जबकि आर्य जलाते थे.
- सिन्धु सभ्यता काल में लेखन कला, वास्तुकला, चित्रकला, मूर्तिकला आदि का विकास हुआ जबकि आर्य सभ्यता से इनसे सम्बन्धित सामग्री नहीं. मिलती.
- सिन्धु सभ्यता में मुद्राओं का प्रचलन था जबकि ऋग्वैदिक आर्य मुद्राओं से परिचित नहीं थे.
- सिन्धु सभ्यता में बाट, पैमाने आदि का प्रचलन था किन्तु वैदिक काल के इस प्रकार के अवशेष नहीं मिले हैं.
- सिन्धु सभ्यता के लोग घर के अन्दर के मनोरंजन पंसद करते थे.जवकि आर्य बाहर के.
- सिन्धु सभ्यता के लोग श्रृंगार के बड़े शौकीन थे तथा आर्यों की इस रुचि सम्बन्धी जानकारी नहीं मिलती.
आर्यों की भारत को देन
राजनीतिक योगदान
- प्रजातंत्रात्मक शासन .
- जनहितकारी सरकार.
- सभा और समिति-जनहितकारी परिषदें.
- स्थानीय शासन .
- आदर्श युद्ध कला .
सामाजिक योगदान
- आदर्श पारिवारिक जीवन .
- नारी का सम्मान .
- वर्ण व्यवस्था व जाति प्रथा.
- पौष्टिक भोजन .
- अतिथि सत्कार .
- जीवन के चार आश्रम .
आर्थिक योगदान
- उन्नत कृषि की जानकारी
- वस्त्राभूषण आदि उद्योगों की जानकारी.
- पशुपालन में रुचि ..
- भूमि के विभाजन द्वारा मिलकर कार्य करने और एक दूसरे की सहायता करने की प्रेरणा दी.
धार्मिक योगदान
- कर्म आर एनर्जन्म का सिद्धान्त.
- प्राकृतिक शक्ति की उपासना.
- यज्ञ आदि करके वातावरण को शुद्ध करना.
- धार्मिक सहनशीलता आर्यों की ही देन है.
संस्कृतिक योगदान
- आर्य साहित्य ने हमें “आशावादी दृष्टिकोण’’ दिया.
- श्रेट ग्रन्थ व वैदिक साहित्य.
- संगीत व नृत्य कला को गति .
- संस्कृत भाषा .
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