आर्य-जाति (The Aryans) प्राचीन भारत (ANCIENT INDIA)
आर्यों का मूल निवासस्थान
आर्यों के मूल निवास स्थान के सम्बन्ध में कई विवाद-ग्रस्त विचार हैं-
- विलियम जोन्स के अनुसार आर्य लोग यूरोप में रहने वाले थे.
- डा. पी. गाइल्ज और प्रो. मैक्डानेल (Dr. P. Giles and Prof. MacDonell) ने कहा है कि आर्य हंगरी, आस्ट्रिया और बोहेमिया प्रदेश के निवासी थे और ईरान से होते हुए भारत पहुंचे.
- मि. पेन्का के अनुसार जर्मनी को आन्तरिक प्रदेश विशेषकर स्कैन्डेनेविया आर्यों का आदि देश है.
- कुछ विद्वानों के अनुसार दक्षिणी रूस में स्टीप्स के मैदान आर्यों का मूल निवास स्थान है.
- जर्मनी के विद्वान प्रो. मैक्समूलर ने अपनी पुस्तक ‘‘भाषा विज्ञान पर भाषण” (Lectures on the Science of Language) में “मध्य एशिया” को आर्यों का मूल निवास स्थान माना है.
- महाराष्ट्र के प्रसिद्ध विद्वान बाल गंगाधर तिलक ने अपनी पुस्तक ‘‘दी आर्कटिक होम ऑफ दी आर्यंन्ज’ (The Arctic Home of the Aryans) में आर्कटिक प्रदेश अर्थात् उत्तरी ध्रुव का प्रदेश आर्यों का मूल निवास स्थान बताया है.
- स्वामी दयानन्द सरस्वती और पर्जिटर (Pargiter) ने अपनी पुस्तकों क्रमशः “सत्यार्थ प्रकाश” तथा “प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक परम्परा” (Ancient Indian Historical Tradition) में ‘‘तिब्बत” को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है.
- बंगाली इतिहासकार डा. अविनाश चन्द्र दास ने अपनी पुस्तक ऋग्वैदिक भारत” में लिखा है कि आर्य लोग भारत में कहीं बाहर से नहीं आये थे अपितु सप्त सिन्धु अथवा आधुनिक पंजाब के रहने वाले थे. इस सिद्धान्त का आधार ‘ऋग्वेद’ तथा ‘अवेस्ता’ है. गंगानाथ झा, श्री एल. डी. कल्ला तथा श्री डी. एस. त्रिवेदी ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है.
- एक अन्य मतानुसार बाल्टिक सागर का पश्चिमी तट आर्यों का मूल निवास स्थान था.
- नेहरिंग (Nehring) का मत है कि ‘‘त्रिपोल्जे” (Tripolje) संस्कृतिक ही मूल इण्डो-यूरोपियनों (Indo-Europeans) की संस्कृति थी और उनका मूल निवास वास्तव में दक्षिणी रूस (South Russia) में भी था जो कि बहुत दूर तक पश्चिम में फैला हुआ था.
- ‘उपस्तर सिद्धांत’ (Sub-stratum theory) के आधार पर पोकोर्ने इस परिणाम पर पहुंचे कि “लगभग 2400 ई. पू. में इण्डो-यूरोपियनों के विसर्जन से पहले उनका मूल निवास स्थान “बेसेर नदी” और “स्विट्युला नदी’ के मध्य का विस्तृत मैदान और उससे भी आगे सफेद रूस और वल्हीनिया तक समझा जाना चाहिए.’
- बैण्डेस्टाइन का मत है कि अविभाजित इण्डो-यूरोपियन आधुनिक किर्गीज के मैदानों में रहते थे.
- मॉर्गन के अनुसार इण्डो-यूरोपियनों का निवास स्थान पश्चिमी साईबेरिया में था.
- निष्कर्ष-आर्यों के मूल निवास स्थान के सम्बन्ध में विरोधी विचार होने पर भी ‘‘मध्य एशिया” तथा “भारतीय सिद्धांत” अधिक प्रचलित हैं.
भारत में आर्यों का विस्तार
- आर्य भारत में कई खेपों (टोलियों) में आये.
- पहली खेप में आने वाले ऋग्वैदिक आर्य थे जो इस उपमहाद्वीप में 1500 ई. पू. के आस पास दिखाई देते हैं.
- उन्हें दास, दस्यु आदि नाम के स्थानीय कबीलों (जनों) से युद्ध करना पड़ा. क्योंकि ‘दास जनों का उल्लेख प्राचीन ईरानी ग्रन्थों में भी मिलता है अतः वे पूर्ववर्ती आर्यों की ही एक शाखा थी.
- ऋग्वेद में दस्युओं से आय के युद्ध का विवरण मिलता है.
- पहले आने वाले आर्यों ने दस्युओं से युद्ध लड़े व बाद में जब आर्य यहां आते गये तो उन्हें आपस में ही सर्वोच्चता प्राप्त करने हेतु युद्ध लड़ने पड़े.
- परम्परानुसार तो कहा जाता है कि आर्यों के पांच कबीले या जन थे जिन्हें ‘पंच-जन’ कहते थे.
- “भरत” जन का उल्लेख सबसे पहले ऋग्वेद में मिलता है.
- ऋग्वेद में भरत जन के राजा सुदास द्वारा पुरूष्णी नदी (रावी नदी) के तट पर दस राजाओं के संघ को पराजित करने का उल्लेख हैं.
- उस युद्ध को ‘दशराज युद्ध’ के रूप में विदित किया गया है.
- डा. होर्नल तथा सर जॉर्ज ग्रियर्सन के अनुसार आर्यों ने भारत पर दो आक्रमण किये तथा कालान्तर में उनके दो समुदाय अस्तित्व में आये.
- इन्होंने पश्चिमी हिन्दुस्तानी में और सिंधी, कश्मीरी, मराठी, बांग्ला, बिहारी, असमी और उड़िया भाषाओं में अन्तर को इस बात का आधार माना है.
- डा. सी. वी. वैद्य (Dr. C.V.Vaidya) ने भी आर्यों के दो समुदायों को स्वीकार किया है.
- किंतु प्रो. रैप्सन ने इसका विरोध किया है-“ऋग्वेद की जातियों और उसके बाद के साहित्य के लोगों में किसी प्रकार का काल-विच्छेद (Break of continuity) नहीं है.” कई शताब्दियों के बाद उन दो आर्य समुदायों को अलग करना कठिन है.
- आर्यों ने दस्युओं को पराजित किया व कुछ को बंदी बना कर दास बना लिया.
- शेष ने जंगलों व पहाड़ों में शरण ली व पूर्व और दक्षिण की ओर बढ़ गये.
- मगध, अंग, बंग, कलिंग की विजय के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि यहाँ के अनार्य राजा बहुत शक्तिशाली थे अतः आर्य उन पर विजय न पा सके.
- इन प्रदेशों में अनार्यों की अधिकता के कारण ही यहां कालान्तर में बौद्ध और जैन धर्म को पनपने का अवसर मिला.
- उत्तरी भारत में तो आर्यों ने विजय की नीति से अपना अधिपत्य जमा लिया किंतु दक्षिण भारत में ऐसा न था.
- दक्षिण जाने वाले आर्यों की संख्या अधिक न थी और दक्षिण में कभी भी आर्यकरण (Aryanisation) नहीं हो सका, इसलिये उस क्षेत्र में “द्रविड़ संस्कृति’ अक्षुण रही.