लार्ड कार्नवालिस 1786-1793 (Lord Cornwallis in Hindi, 1786-1793) आधुनिक भारत (MODERN INDIA) लार्ड कार्नवालिस 1786-1793 (Lord Cornwallis, 1786-1793) 1786 में लार्ड कॉर्नवालिस को भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया. उसके समक्ष प्रमुख कार्य एक संतोषजनक भूमि कर व्यवस्था स्थापित करना, एक कार्यक्षम न्याय व्यवस्था स्थापित करना और कम्पनी के व्यापार विभाग का पुनर्गठन करना था. उसने जिस शासन व्यवस्था का गठन किया वह 1858 तक चलती रही. कॉर्नवालिस के न्यायिक सुधार (Judicial Reforms of Cornwallis) कॉर्नवालिस का सर्वप्रथम कार्य जिले की समस्त शक्तियों को कलक्टरों के हाथों में केन्द्रित करना था. 1787 में उसने जिलों में कार्यवाहक कलैक्टरों को दीवानी न्यायालयों का न्यायाधीश भी नियुक्त कर दिया. इसके अलावा उन्हें कुछ फौजदारी अधिकार और सीमित मामलों में फौजदारी न्याय करने की भी शक्ति प्रदान की गई. भारतीय न्यायाधीशों वाली जिला फौजदारी अदालतें समाप्त कर दी गई. इन अदालतों के स्थान पर चार (3 बंगाल के लिए और 1 बिहार के लिए) भ्रमण करने वाले न्यायालय स्थापित किए गए. इन ,न्यायालयों के अध्यक्ष यूरोपीय लोग होते थे. काजी और मुफ्ती इनकी सहायता करते थे. ये न्यायालय जिलों का दौरा करने के साथ-साथ नगर दण्डनायकों (Magistrates) के द्वारा निर्देशित फौजदारी मामलों को भी निपटाते थे. मुर्शिदाबाद में स्थित सदर निजामत न्यायालय के स्थान पर एक ऐसा ही न्यायालय कलकत्ता में स्थापित किया गया. यह न्यायालय गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् से मिलकर बनता था. इनकी सहायता के लिए मुख्य काजी तथा मुख्य मुफ्ती होते थे. कॉर्नवालिस संहिता, 1793 (Cornwallis Code, 1793) 1793 में कार्नवालिस ने अपने न्यायिक सुधारों को अंतिम रूप देते हुए एक "संहिता" (कॉर्नवालिस संहिता) के रूप में प्रस्तुत किया. कॉर्नवालिस के न्यायिक सुधार "शक्ति-पृथक्करण" (Separation of Powers) के प्रसिद्ध सिद्धांत पर आधारित थे. कॉर्नवालिस ने कर तथा न्याय प्रशासन को पृथक किया. कॉर्नवालिस का यह अनुभव था कि कलक्टर के रूप में किए गए अन्याय का निर्णय कलक्टर स्वयं न्यायाधीश के रूप में कैसे कर सकता है? इस न्याय व्यवस्था पर जमींदारों और कृषकों का विश्वास न रहेगा. अतः कॉर्नवालिस ने अपनी उक्त संहिता के द्वारा कलक्टर की न्यायिक तथा फौजदारी शक्तियाँ ले ली. अब कलक्टर के पास केवल कर संबंधी शक्तियाँ ही रह गई. जिला दीवानी न्यायालयों में कार्य के लिए जिला न्यायाधीशों (District Judges) की एक नई श्रेणी गठित की गई. इस श्रेणी को फौजदारी तथा पुलिस के कार्य भी दे दिए गए. कर तथा दीवानी मामलों का अंतर समाप्त कर दीवानी न्यायालयों को समस्त दीवानी मामलों को सुनने का अधिकार दे दिया गया. मुंसिफ की अदालत का अध्यक्ष एक भारतीय अधिकारी होता था. इस अदालत को 50 (पचास) रुपये तक के मामले सुनने का अधिकार था. इसके ऊपर रजिस्ट्रार का न्यायालय था. इस न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश कोई यूरोपीय व्यक्ति होता था. इसे 200 रुपये तक के मामले सुनने का अधिकार होता था. इन दोनों न्यायालयों से अपील नगर अथवा जिला न्यायाधीश के न्यायालय में हो सकती थी. जिला न्यायाधीश सभी दीवानी मामले सुन सकता था. उसकी सहायता के लिए भारतीय विधिवेत्ता होते थे. जिला के अंतर अपील न्यायालयों के ऊपर चार प्रान्तीय न्यायालय थे. ये प्रान्तीय न्यायालय कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, ढाका और पटना में स्थित थे. इन न्यायालयों में जिला न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध अपील हो सकती थी. ये न्यायालय जिला न्यायालयों के कार्य का निरीक्षण भी करते थे. इनके परामर्श पर सदर दीवानी न्यायालय किसी जिला न्यायाधीश को निलम्बित भी कर सकता था. कुछ मामलों में यह न्यायालय आरम्भिक आधिकारिता (Original Jurisdiction) का भी प्रयोग करता था. इस न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश भी कोई यूरोपीय व्यक्ति ही होता था. यह न्यायालय 1000 रुपये तक के मामले सुन सकता था. इसके ऊपर सदर दीवानी न्यायालय था. यह न्यायालय कलकत्ता में स्थित था. 5000/- रुपये से अधिक के मामले की अपील सपरिषद् सम्राट के समक्ष हो सकती थी. इसके सदस्य गवर्नर जनरल और उसके पार्षद होते थे. उपरोक्त न्यायालयों के संबंध में कार्यविधि के नियम बना दिए गए थे . इन न्यायालयों से सम्बन्धित भारतीय अधिकारियों की योग्यताएं भी निर्धारित कर दी गई थी. इन न्यायालयों में हिन्दुओं पर हिन्दू तथा मुसलमानों पर मुस्लिम विधि लागू होती थी. इन जिलों में रहने वाले यूरोपीय लोग भी इन दीवानी न्यायालयों की अधिकारिता के अधीन कर दिए गए. इसी प्रकार सरकारी अधिकारी भी अपने सरकारी कार्यों के लिए इन न्यायालयों के प्रति उत्तरदायी थे. इस प्रकार लार्ड कॉर्नवालिस ने भारत में प्रथम बार "कानून की सर्वोच्चता" के सिद्धांत को स्थापित किया. दाण्डिक कानून में सुथार (Reforms in Criminal Law) लार्ड कॉर्नवालिस ने फौजदारी न्याय व्यवस्था में भी अनेक सुधार कार्य किये. जिला फौजदारी न्यायालय को समाप्त कर दिया. प्रान्तीय भ्रमण करने वाली अदालतें (Circuit Courts) दीवानी अदालतों के साथ-साथ फौजदारी अदालतों के रूप में भी कार्य करने लगी. इनकी सहायता के लिए भारतीय काजी तथा मुफ्ती होते थे. ये न्यायालय मृत्युदंड भी दे सकते थे किन्तु इस संबंध में सदन निज़ामत न्यायालय की पुष्टि आवश्यक होती थी . सदर निजामत न्यायालय फौजदारी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के रूप में कार्य करता था. गवर्नर जनरल को क्षमादान या दंड के लघुकरण की अनुमति थी. इनके अलावा भी कॉर्नवालिस ने फौजदारी कानून में कुछ महत्वपूर्ण सुधार किये, जिन्हें 1797 में ब्रिटिश संसद ने एक अधिनियम के द्वारा प्रमाणित किया. दिसम्बर, 1790 में मुसलमान न्यायाधिकारियों के मार्गदर्शन के लिए एक नियम बनाया गया. इस नियम के अनुसार हत्या के मामले में हत्यारे की भावना पर अधिक बल दिया गया न कि हत्या के अस्त्र एवं ढंग पर. इसी प्रकार मृतक के अभिभावकों की इच्छा से क्षमादान या हर्जाना आदि निर्धारित करना बंद कर दिया गया. 1793 में यह तय किया गया कि साक्षी के "धर्म विशेष" का मुकदमे पर कोई प्रभाव नहीं होगा. मुस्लिम कानून के अनुसार किसी मुस्लिम व्यक्ति की हत्या से सम्बन्ध में अन्य धर्म के व्यक्ति साक्ष्य नहीं दे सकते थे. पुलिस प्रशासन में सुधार (Reforms in Police Administration) लार्ड कॉर्नवालिस ने अपने न्यायिक सुधारों की सफलता हेतु पुलिस प्रशासन में भी महत्वपूर्ण सुधार किए. कलकत्ता में कानून व्यवस्था की स्थिति बहुत खराब थी. पुलिस अधीक्षक भ्रष्ट हो चुके थे. पुलिस कर्मिकों में तत्परता एवं ईमानदारी लाने के लिए उनके वेतन में वृद्धि की गई. अपराधियों को पकड़ने पर पुरस्कार आदि भी दिए जाने लगे. इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदारों के पुलिस अधिकारों का उन्मूलन कर दिया गया. अब जमींदार अपने क्षेत्रों में डकैती और हत्या आदि अपराधों के लिए उत्तरदायी न रहे. जिले की पुलिस का भार अंग्रेज दण्डनायको (Magistrates) पर डाला गया. समस्त जिलों को 400 वर्ग मील के क्षेत्रों में विभाजित कर दिया गया. प्रत्येक क्षेत्र में एक दरोगा तथा उसकी सहायता के लिए अन्य पुलिस कर्मचारी नियुक्त किए गए. कर व्यवस्था में सुधार (Reforms in Revenue System) लार्ड कॉर्नवालिस ने कर व्यवस्था में सुधार हेतु अनेक कदम उठाए. 1787 में प्रान्त को राजस्व क्षेत्रों में विभाजित कर दिया गया. प्रत्येक क्षेत्र में एक-एक कलक्टर की नियुक्ति कर दी गई. राजस्व बोर्ड को कलक्टरों के कार्य का निरीक्षण करने का भार भी सौंपा गया. 1790 में कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्ज की अनुमति से कॉर्नवालिस ने जमींदारों को भूमि का स्वामी मान लिया. इसके लिए जमींदारों ने एक निश्चित राशि वार्षिक कर के रूप में कम्पनी को देनी स्वीकार की. 1793 में यह व्यवस्था स्थाई बना दी गई. व्यापार में सुथार (Reforms in Trade) लार्ड कार्नवालिस ने देखा कि कम्पनी के व्यापार विभाग में भ्रष्टाचार फैला हुआ है. अधिकार की मिलीभगत से यूरोपीय तथा भारतीय ठेकेदार घटिया माल उँची दरों पर कम्पनी को देते थे. 1773 में गठित व्यापार बोर्ड के सदस्य भी अपनी कमीशन और रिश्वत के कारण इन अनियमितताओं को रोकना नहीं चाहते थे. कॉर्नवालिस ने इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए व्यापार बोर्ड के सदस्यों की संख्या 11 से घटाकर 5 कर दी तथा ठेकेदारों के स्थान पर गुमाश्तों तथा व्यापारिक प्रतिनिधियों के द्वारा माल लेने की व्यवस्था को स्थापित किया. यह व्यवस्था कम्पनी के व्यापार के अंतिम दिनों तक चलती रही. प्रशासन का यूरोपीयकरण (Europeanisation of Administration) लार्ड कॉर्नवालिस स्वभाव से ही भारतीयों का विरोधी था. वह भारतीयों को बहुत हीन दृष्टि से देखता था. अपने इस दृष्टिकोण के कारण उसने प्रशासन एवं सेना में समस्त उच्च पदों पर यूरोपीय लोगों को नियुक्त किया. उसकी नीति भारतीयों को केवल वही पद देने की थी जिसके लिए अंग्रेज उपलब्ध न हों. बंगाल का स्थाई बन्दोबस्त (Permanent Settlement of Bengal) मुख्य रूप से कॉर्नवालिस को भारत में एक ऐसी भूमि कर व्यवस्था को खोजने के लिए भेजा गया था. जिससे कम्पनी और कृषक दोनों का लाभ हो. कॉर्नवालिस ने बहुत सोच-विचार और गंभीर अध्ययन के बाद बंगाल के लिए एक स्थाई भूमि कर व्यवस्था की स्थापना की. इस व्यवस्था के अनुसार जमींदारों को भूमि का स्वामी मान लिया गया. जमींदारों के लिए यह आवश्यक कर दिया गया कि वे 1790-91 की कर संग्रह की दर से (अर्थात 226,00,000 रुपये वार्षिक) कम्पनी को भूमिकर अदा करें. भूमि के लगान का 8/9 भाग कम्पनी को देना था तथा 1/9 भाग अपनी सेवाओं के लिए अपने पास रखना था. 1790 में यह व्यवस्था 10 वर्ष के लिए की गई थी किन्तु 1793 में इसे स्थाई कर दिया गया. व्यवस्था के लाभ (Advantages of System) बंगाल की स्थाई भूमि कर व्यवस्था से कम्पनी को निम्नलिखित लाभ-- इससे राज्य की आय निश्चित हो गई सरकार समय-समय पर नई कर व्यवस्था और कर निर्धारण के जटिल कार्य से बच गई. यह माना गया कि इससे कृषि व्यवसाय को बढ़ावा मिलेगा. जमींदार अधिकाधिक उपज के लिए कृषकों को प्रोत्साहित करेंगे. इससे कृषकों को भी लाभ होगा. राजनीतिक रूप से यह माना गया कि इससे राजभक्त जमींदारों का एक संगठित समूह तैयार हो जाएगा. यह समूह कम्पनी के हितों की हर प्रकार से रक्षा करेगा. क्योंकि कम्पनी ने उनके अधिकारों को सुरक्षित किया है. सामाजिक रूप से यह माना गया कि जमींदार कृषकों के प्राकृतिक नेता के रूप में कार्य करेंगे. व्यवस्था के दोष (Disadvantages of System) व्यवस्था के लागू होने के कुछ ही समय बाद इसके दोष सामने आने शुरू हो गए. इसके प्रमुख दोष थे-- इस व्यवस्था से समाज में उच्च स्तर पर सामन्त वर्ग और निम्न स्तर पर दास वर्ग की उत्पत्ति हुई. भूमि कर का स्थाई बन्दोबस्त करते समय भुमि तथा उत्पादन की भावी मूल्य वृद्धि की ओर ध्यान न दिया गया. इससे कृषि योग्य भूमि तथा उत्पादन के मूल्य में जब कई गुणा वृद्धि हो गई तब भी सरकार को कोई अतिरिक्त धन प्राप्त न हो सका. अधिकतर जमींदारों ने अपनी सामन्तवादी प्रवृत्ति के कारण कृषकों के शोषण पर ध्यान दिया कृषि के विकास या कृषकों की समृद्धि पर नहीं. इस व्यवस्था के द्वारा यद्यपि अंग्रेजों को राजभक्तों का एक समूह प्राप्त हो गया किन्तु इसने समाज के एक बड़े वर्ग को अंग्रेजों का विरोधी बना दिया. मूल्यांकन (Evaluation) कॉर्नवालिस के सुधारों का आधार वॉरेन हेस्टिग्ज ने तैयार किया था. उसने इन आधारों को लेकर एक ऐसी व्यवस्था स्थापित की जो लम्बे समय तक यथावत् जारी रही. उसके शासन काल को कॉर्नवालिस प्रणाली "या" 1793 की प्रणाली के नाम से संबोधित किया जाता है. उसने भूमि के पट्टे, न्यायिक तथा पुलिस प्रबन्ध जैसे अंग्रेजी सिद्धांत और संस्थाएं भारत में लागू की. उसका भारतीयों के प्रति बड़ा नकारात्मक दृष्टिकोण था. उसके द्वारा प्रारंभ की गई उच्च सरकारी पदों पर यूरोपीयों की नियुक्ति की व्यवस्था ब्रिटिश साम्राज्य के अंतिम दिनों तक चलती रही. वह प्रथम गवर्नर जनरल था जिसने भारत में "कानून की सर्वोच्चता' के सिद्धांत को स्थापित किया.

लार्ड कार्नवालिस 1786-1793 (Lord Cornwallis in Hindi, 1786-1793)

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