उदारवादियों और उग्रवादियों के बीच सूरत की फूट

उदारवादियों और उग्रवादियों के बीच सूरत की फूट Split between the Moderates and Extremists

उदारवादियों और उग्रवादियों के बीच सूरत की फूट (Split between the Moderates and Extremists)

सूरत की फूट, 1907 (Surat Split, 1907)

1906 ई. तक कांग्रेस के दो पक्ष उदारवादी और उग्रवादी काफी मतभेदों के बावजूद जिसमें से एक अध्यक्ष के चुनाव को लेकर भी था, किसी तरह साथ-साथ चले. परन्तु 1907 के सूरत अधिवेशन में जोकि कि पहले नागपुर में होना था, इन दोनों दलों में विभाजन हो गया. कांग्रेस के 1906 को कलकत्ता में हुए अधिवेशन में दादा भाई नारौजी की अध्यक्षता में निम्नलिखित प्रस्ताव स्वीकृत हुआ- “निश्चय हुआ कि इस तथ्य का ध्यान रखते हुए कि इस देश के लोगों का उसके प्रशासन में बहुत कम अथवा शून्य भाग है तथा सरकार के प्रति प्रेषित स्मृति-पत्रों पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता, इसमें कांग्रेस की यह सम्मति है कि प्रान्त के विभाजन के विरोध में बंगाल में जिस बहिष्कार आंदोलन का आरम्भ हुआ है, वह न्याय संगत था, तथा है.”

उग्रवादी चाहते थे कि कांग्रेस 1906 के अधिवेशन में पारित प्रस्ताव के आधार पर ही आगे की नीति निर्धारित करे. बाल गंगाधर तिलक ने 23 दिसम्बर, 1907 को सूरत में कहा कि, “हम कांग्रेस में फूट डालने नहीं आए हैं. हम चाहते हैं कि कांग्रेस अपनी बात से न हटे. हम कांग्रेस को समय के साथ चलता देखना चाहते हैं. पर जो लोग कांग्रेस को सूरत लाए. हैं, हालाकि नागपुर अधिवेशन कराने को तैयार था, वे कांग्रेस को पीछे घसीट रहे हैं. जब आप स्वदेशी की स्वीकार करते हैं तो आपको विदेशी वस्तुओं का अवश्य बायकाट करना चाहिए. मैं उस पार्टी में हैं जो वह काम करने को तैयार है जिसे वह ठीक समझती है चाहे सरकार खुश हो या नाखुश.कांग्रेस सब लोगों की संस्था है और उसमें जनता की आवाज ही मुख्य होनी चाहिए. नरमदलियों की नीति विनाशकारी है. मैं नहीं चाहता कि आप इस पर चलें. हम आगे बढ़ना चाहते हैं.”

यद्यपि सूरत अधिवेशन के समय कांग्रेस के अधिवेशन का एजेण्डा प्रतिनिधियों को नहीं बांटा गया था पर तिलक को गोखले द्वारा बनाये गये कांग्रेस के प्रस्तावित संविधान की एक प्रति मिल गई. जिससे पता चला कि कांग्रेस 1906 के कलकत्ता अधिवेशन में प्रस्तावित प्रस्ताव पर स्पष्ट रूप से परिवर्तन करने जा रही है, तो तिलक चुप न रह सके. उन्होंने कहा कि यदि मुझे और मेरे साथियों को यह आश्वासन मिल जाए कि कांग्रेस को पीछे ले जाने की कोशिश नहीं की जाएगी तो प्रेजीडेण्ट के चुनाव के बारे में विरोध वापस ले लिया जाएगा. परन्तु नरम दलीय अपनी नीतियों में किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं चाहते थे.

27 दिसम्बर, 1907 को कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ. डा. रासबिहारी घोष को अध्यक्ष चुना गया. किन्तु जैसे ही वे अपना सभापति का भाषण देने खड़े हुए, तिलक मंच पर चढ़ गये और मांग करने लगे कि उन्हें दर्शकों से कुछ कहने की अनुमति प्रदान की जाए. अध्यक्ष ने तिलक की इस मांग को अस्वीकार कर दिया, जिसे मानने को तिलक तैयार नहीं हुए. इसी समय गरम दल वालों ने सभा के बीच अशान्ति उत्पन्न कर दी तथा दोनों दलों के बीच खूब मार-पीट हुई. तिलक को मनाने के सभी प्रयास व्यर्थ गये. अत: अधिवेशन को स्थगित करना पड़ा. एनीबेसेंट ने कहा सूरत की घटना कांग्रेस के इतिहास में सबसे अधिक दु:खद घटना है.” नरम दल का नेतृत्व गोपाल कृष्ण गोखले तथा गरम दल में मुख्य नेता-बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं विपिन चन्द्र पाल थे. पुन: दोनों दलों का परस्पर विलय् 1916 में हुआ.

मोर्ले-मिन्टो सुधार (Morley-Minto Reforms)

इस समय सरकार ने दोहरी नीति अपनानी शुरू कर दी थी. गरम दल वालों का दमन तथा नरम दल वालों को खुश कर अपने साथ मिलाने की नीति का पालन किया जाने लगा. अंग्रेजी सरकार ने मुसलमानों को अपने साथ रखने की नीति का पालन करते हुए मुस्लिक साम्प्रदायिकता को भी प्रोत्साहन दिया. 

तत्कालीन भारत सचिव मोर्ले एवं वायसराय लार्ड मिन्टो ने सुधारों का भारतीय परिषद् एक्ट, 1909 पारित किया, जिसे मार्ले-मिन्टो सुधार कहा गया. इन सुधारों के तहत केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान मण्डलों के आकार एवं उनकी शक्ति में नाममात्र की वद्धि की गई, लेकिन साथ ही निर्वाचन प्रणाली को दूषित बना दिया गया. मुसलमानों को पृथक निर्वाचन और अधिक प्रतिनिधित्व की मांगें स्वीकार कर ली गई. साथ ही जमींदारों, धनी वर्गों व नगर-पालिकाओं को भी कौंसिलों में पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया.

सुधारों से मूल रूप में देश के किसी भी वर्ग को संतोष नहीं हुआ. बाद में अंग्रेजों की यही नीति भारत विभाजन का मुख्य कारण बनी.

मुस्लिम लीग की स्थापना (Foundation of the Muslim League)

अंग्रेजी सरकार की प्रेरणा से ही 1 अक्टूबर, 1906 को सर आगाखां के नेतृत्व में एक मुस्लिम शिष्टमण्डल ने तत्कालीन वायसराय लार्ड मिण्टो से भेंट की. जिसने वायसराय से मांग की कि प्रान्तीय, केन्द्रीय व स्थानीय निर्वाचन हेतु मुसलमानों के लिए पृथक साम्प्रदायिक निर्वाचन व्यवस्था की जाय. जिसे सरकार ने आसानी से स्वीकार कर लिया. अंग्रेजों ने “फूट डालो और राज करो” की नीति के तहत मुसलमानों की पृथक निर्वाचन व्यवस्था की मांग स्वीकार केरके साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन दिया तथा भविष्य में हुए विभाजन के लिए एक मजबूत आधार तैयार कर दिया.

सरकार से प्रोत्साहन मिलने पर 30 दिसम्बर, 1906 को ढाका में मुसलमानों की एक सभा हुई. जिसमें मुख्य रूप से आगा खां तथा नवाब सलीमुल्ला के नेतृत्व में ‘मुस्लिम लीग‘ की स्थापना की गई. इस लीग के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित बतलाये गए. इसका उद्देश्य मुसलमानों में राज्य-भक्ति बढ़ाना और उनके अधिकारों व हितों की रक्षा करना था. मुस्लिम लीग हमेशा ही राष्ट्रीय आंदोलनों के मार्ग में बाधक बनी रही.

राजद्रोह अधिनियम (Rebellion Act)

मार्ले-मिन्टों सुधारों पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उग्रवादी राष्ट्रवादियों तथा आतंकवादियों ने अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों को काफी तेज कर दिया. परिणामस्वरूप सरकार ने इनके दमन के लिए अनेक कठोर और अत्याचारी कानून बनाये. 1910 ई. में भारतीय प्रेस एक्ट पारित कर समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता छीन ली गई. 1911 ई. में राजद्रोह अधिनियम पारित कर सरकार के विरुद्ध सभाएं करने पर कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई. इसी क्रम में 1913 ई. में फौजदारी संशोधन अधिनियम पारित किया गया, जो कि राष्ट्रवादियों के दमन के लिए पारित किया गया था.

दिल्ली दरबार, 1911 (Delhi Darbar)

सम्राट जार्ज पंचम एवं महारानी मेरी के स्वागत में तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग के समय 1911 में दिल्ली में एक भव्य दरबार का आयोजन किया गया. इसी समय भारतीयों के विरोध को देखते हुए बंगाल विभाजन को रद्द करने की घोषणा की गई तथा बंग्ला भाषी क्षेत्रों को मिलाकर एक अलग प्रान्त बनाया गया. उड़ीसा व बिहार को अलग राज्य तथा भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानान्तरित करने की घोषणा भी इसी समारोह में की गई.

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