‘जीव-विज्ञान’ (Biology), विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत जीवित पदार्थों के उद्भव, विकास, आहार व जनन आदि जैसी अनेक जैविक क्रियाओं का प्रयोगात्मक अध्ययन किया जाता है.
‘बॉयोलॉजी’ (Biology) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम सन् 1802 ई. में लैमार्क (Lamarck) और ट्रेविरेनस (Treviranus) नामक वैज्ञानिकों द्वारा किया गया.
‘Biology‘ शब्द का उद्भव ग्रीक भाषा के दो शब्दों ‘Bio’ (= Life – जीवन) तथा Logos ( = Discourse – अध्ययन) से हुआ है. इसी कारण ‘जीव-विज्ञान’ को ‘जीवन का विज्ञान’ भी कहते हैं.
जीव विज्ञान की दो प्रमुख शाखाएं हैं-
1. वनस्पति विज्ञान (Botany) तथा
2. जन्तु विज्ञान (Zoology).
‘Botany‘ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के ‘Baskein’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ है ‘चरना’. थियोफ्रेस्टस (370-287 BC) ने अपनी पुस्तक ‘Historia Plantorum’ में 500 प्रकार के पौधों का वर्णन किया है. उन्हें ‘वनस्पति-विज्ञान का जनक’ (Father of Botany) कहा जाता है.
हिप्पोक्रेट्स (460-370 BC) ने सर्वप्रथम मानव रोगों पर लेख लिखे और उन्हें ‘चिकित्सा शास्त्र का जनक’ (Father of Medicine) कहा जाता है.
एरिस्टोटल (342-322 B.C.) ने अपनी ‘जन्तु-इतिहास’ (Historia Animalism) नामक पुस्तक में 500 जन्तुओं की रचना, स्वभाव, वर्गीकरण, जनन आदि का वर्णन किया, तथा उन्हें ‘जन्तु विज्ञान का जनक‘ (Father of Zoology) कहा जाता है.
जीवन के लक्षण (Characteristics of Life)
- विज्ञान की इस शाखा में सिर्फ उन्हीं पदार्थों का अध्ययन किया जाता है जिनमें जीवन होता है. लेकिन व्यावहारिक तौर पर जीवन शब्द को परिभाषित कर पाना अत्यंत ही कठिन है, क्योंकि जीवित पदार्थ के अपने कुछ निश्चित लक्षण होते हैं जिनके आधार पर यह समझा जाता है कि यह जीव है.
- अर्थात् जीवन एक अमूर्त (Abstract) वस्तु है. इसको न तो हम देख सकते हैं और न ही हम छू सकते हैं. किन्तु इसका अनुभव हम अवश्य कर सकते हैं.
- आधुनिक खोजों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जीवों का निर्माण करने वाले विशेष संघनित पदार्थों द्वारा प्रदर्शित प्रक्रियाओं जैसे-चलन, श्वसन, पोषण, जनन आदि की अभिव्यक्ति ही जीवन है.
- अतः इन प्रक्रियाओं को जैविक क्रियाएँ (Life Processes or Vital Activities) कहते हैं.
जीवों के विशेष लक्षण निम्नलिखित हैं –
(1) निश्चित संगठन (Organisation) –
- जटिल जैविक संगठन जीवों के प्रमुख लक्षण हैं. रासायनिक अणुओं का संस्तरण कोशिकाओं में, कोशिकाओं का ऊतकों में, ऊतकों का अंगों में तथा अंगों का अंग तंत्रों में होता है.
- जिसके कारण जीवों को निश्चित रूप व आकार प्राप्त होता है.
(2) उपापचय (Metabolism)-
- सभी जीवों के शरीर के जीवद्रव्य में निर्माणात्मक (Constructive) तथा ध्वंसात्मक (Destructive) क्रियाएँ सदैव होती रहती हैं.
- निर्माणात्मक या रचनात्मक क्रियाओं द्वारा खाद्य-पदार्थों के स्वांगीकरण (Assimilation) से नये जीवद्रव्य का निर्माण होता है.
- इस क्रिया को उपचयी परिवर्तन (Anabolic Changes) कहते हैं.
- जीवद्रव्य के विभिन्न रासायनिक पदार्थ विघटन ध्वंसात्मक या नाशात्मक क्रियाओं के माध्यम से नष्ट होते हैं.
- इनको उपचयी परिवर्तन (Catabolic Changes) कहते हैं.
(3) पोषण (Nutrition)-
- जीव अपने दैनिक कार्यों के लिए आवश्यक ऊर्जा पोषण द्वारा प्राप्त करते हैं.
- पौधे अपना भोजन प्रकाश संश्लेषण विधि से बनाते हैं जबकि, जन्तु पौधों पर ही आश्रित रहते हैं.
- निर्जीव वस्तुओं में इस प्रकार से भोजन बनाने का गुण नहीं होता है.
(4) श्वसन (Respiration)-
- जीवधारियों का मुख्य लक्षण श्वसन क्रिया होता है.
- इस क्रिया में जीव वायुमंडल में उपस्थित ऑक्सीजन (O2) को अपने शरीर के भीतर लेते हैं तथा कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) को अपने शरीर से बाहर निकालते हैं.
- श्वसन क्रिया के दौरान वसा, कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन का विघटन होता है और ऊर्जा A.T.P. (Adenosine Tri-Phosphate) के रूप में निकलती है.
(5) उत्सर्जन (Excretion)-
- जीव शरीर में होने वाली उपापचय क्रियाओं के दौरान पैदा हुये हानिकारक पदार्थों जैसे कार्बन डाईऑक्साइड (CO2) तथा यूरिया व अमोनिया आदि को जीवधारी शरीर से बाहर निकाल देते हैं.
- इन हानिकारक पदार्थों को बाहर निकालने की क्रिया को उत्सर्जन कहते हैं.
- अजीवित वस्तुओं में इस क्रिया को करने की शक्ति नहीं होती.
(6) वृद्धि (Growth)-
- प्रत्येक जीवित वस्तु भ्रूण के रूप में अपना जीवन शुरू करते हैं तथा धीरे-धीरे आकार में वृद्धि करके प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त करते हैं.
- जीवों में यह वृद्धि प्रोटोप्लाज्म के द्वारा होती है.
- जीवधारियों की यह वृद्धि आंतरिक होती है जो उनकी कोशिकाओं के विभाजन के फलस्वरूप होती है.
(7) प्रजनन (Reproduction)-
- प्रत्येक जीव प्रजनन क्रिया के माध्यम से अपनी ही जैसे जीव उत्पन्न करते हैं.
- इस क्रिया के द्वारा ही वह अपने वंश को बनाये रखते हैं.
(8) अनुकूलन (Adaptability)-
- अनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त करने के लिए, प्रत्येक जीव में यह क्षमता होती है कि वे अपनी संरचनाओं एवं कार्यों में परिवर्तन कर सकते हैं, जैसे मछली जल में रहने के लिए, पक्षी हवा में उड़ने के लिये तथा साँप बिलों के अन्दर रहने के अनुकूल होते हैं.
- इसी प्रकार कुछ पौधे मरूस्थलों में उगते हैं, तो कुछ वृक्ष केवल सदाबहार जंगलों में ही मिलते हैं.
- जीवों की इसी विशेषता को अनुकूलन (Adaptability) कहते हैं.
(9) उद्दीपन (Irritability)-
- जीवधारियों में उत्तेजनशीलता होती है जिसके कारण वे वातावरण के अन्दर होने वाली प्रक्रियाओं को जान लेते हैं .
- गर्म-ठण्डे व अच्छे-बुरे उद्दीपनों के कारण जीवधारियों के अंगों में गति होती है.
- उदाहरण के लिये सर्दी लगने पर मनुष्यों के बाल खड़े हो जाते हैं और चिड़ियाँ अपने पंख फुला लेती हैं.
- इसी प्रकार अंधेरे कमरे में उगने वाला पौधा प्रकाश-स्रोत की दिशा में वृद्धि करता है.
(10) जीवद्रव्य (Protoplasm)-
- सभी जीव चाहे वे प्राणी हों या पौधे, कोशिकाओं के द्वारा निर्मित होते हैं तथा इन कोशिकाओं के अन्दर जीवद्रव्य उपस्थित होता है.
- हक्स्ले (Huxley) ने ‘जीवद्रव्य को जीवन का भौतिक आधार’ (Physical Basis of Life) कहा है.
- जीवद्रव्य का रासायनिक संगठन सभी जीवधारियों में लगभग समान होता है.
- कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन व ऑक्सीजन इसके मुख्य घटक हैं.
(11) जीवन-चक्र (Life-cycle)-
- समस्त जीवधारी अत्यंत सूक्ष्म भ्रूण के रूप में जीवन प्रारम्भ करते हैं और पोषण, वृद्धि तथा संतानोत्पत्ति के पश्चात् नष्ट हो जाते हैं.
- संतान वृद्धि कर पुनः इसी जीवन-मरण के चक्र को पूर्ण करती है.