भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन-शुरुआती विद्रोह(The early Uprisings)-सही मायने में देश के अंदर राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुई थी. परंतु इसके पूर्व भी अर्थात 1757 से 1856 के बीच संपूर्ण देश में अलग अलग समयों में अलग-अलग स्थान पर विद्रोह हुए. जिसमें विदेशी राज्य तथा उनकी नीतियों से उत्पन्न कठिनाइयों के विरुद्ध विद्रोह, सैनिकी असंतोष देखे गये.
प्रारंभ में बंगाल में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के बाद जमींदार किसान तथा शिल्पियों का पतन शुरू हो गया था. जिससे इन लोगों में असंतोष व्याप्त था. 1770 के लगभग ब्रिटिश सरकार द्वारा तीर्थ स्थानों में आने जाने पर प्रतिबंध लगा देने के कारण बंगाल में सन्यासियों ने लोगों के साथ मिलकर ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध विद्रोह किया. इतना ही नहीं सन्यासियों ने लोगों के साथ मिलकर कंपनी पर आक्रमण कर दिया.
वारेन हेस्टिंग लंबे समय के बाद इस विद्रोह को दबाने में सफल हुए थे. 1768 में अकाल पड़ने के कारण तथा भूमि पर बढ़ा देने तथा अन्य तरह के आर्थिक संकटों के कारण मिदनापुर जिले में आदिम जाति के चुनार लोगों ने हथियार उठा लिए थे.1820-22 तथा 1831 में छोटानागपुर तथा सिंहभूम जिले के ‘हो’ तथा ‘मुंडा’लोगों ने भी कंपनी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था. यह क्षेत्र लंबे समय तक उपद्रव ग्रस्त रहे.
छोटा नागपुर के लोगों ने मुखिया मुंडो की भूमि को छीनकर मुस्लिम तथा सिखों को दिए जाने के विरुद्ध 1831 में विद्रोह कर दिया तथा लगभग 1000 विदेशियों को मौत के घाट उतार दिया.राजमहल जिले के संथाल लोगों ने भी भूमि कर अधिकारियों के दुर्व्यवहार, पुलिस के दमन तथा जमींदारों वह साहूकारों की वसूली यों के विरुद्ध विद्रोह कर अपने आपको ईस्ट इंडिया कंपनी से स्वतंत्र घोषित कर लिया.
1856 में पृथक संथाल परगना बनाकर इस विद्रोह को अंग्रेजों ने शांत किया. इसी प्रकार अंग्रेजी शासन की नीतियों के विरुद्ध असम के अहोम अभिजीत वर्ग ने 1828 में विद्रोह कर दिया. जिसे शांतिमय नीति द्वारा कंपनी ने 1830 में नियंत्रित किया था. कंपनी द्वारा जयंतिया तथा गारो पहाड़ियों पर अधिकार कर लेने से यहां के लोगों ने विदेशी साम्राज्य के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया. इसे भी 1833 में सैनिक की कार्यवाही के बाद नियंत्रित किया जा सका.
मैसूर का शासक हैदर अली और उसके बाद उसका पुत्र टीपू सुल्तान अंत तक अंग्रेजों के कट्टर विरोधी रहे. टीपू सुल्तान 1799 में अंग्रेजों से युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ.( टीपू सुल्तान के बारे में हम विस्तार से बताएंगे).
पश्चिमी भारत में कृषि संबंधित कठिनाइयों तथा बहुत से अन्य परेशानियों के कारण 1812-19 पश्चिमी तट के खानदेश जिले में भीलों का विद्रोह व्याप्त रहा. बाद में 1825, 1831 तथा 1800 46 में यहां फिर से उपद्रव हुए. इसी प्रकार कोलो ने भी 1829, 1839 तथा 1844 से 1848 तक मुख्य रूप से बढ़ती बेकारी के कारण विद्रोह किए.
कच्छ में अंग्रेजों द्वारा किए गए राजनीतिक हस्तक्षेप तथा अत्यधिक भूमि कर के कारण यहां के लोगों ने 1819 तथा 1821 में विद्रोह किया था. इसे दबाने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी को समझौते वाली नीति अपनानी पड़ी. पहले से ही अंग्रेजों के विरोधी ओखा मंडल के बघेरो ने 1818-19 में सशस्त्र विद्रोह कर दिया.
1844 में नमक कर 0.50 रुपया प्रतिमान से बढ़ाकर 1.00 रुपया प्रति मन कर दिए जाने के कारण सूरत में जन आंदोलन हुआ. जिस कारण अंग्रेजी सरकार को अतिरिक्त नमक कर वापस लेना पड़ा. अंग्रेजी प्रशासनिक पद्धति से अप्रसन्न पश्चिमी घाट पर रहने वाले रामोशी आदिम जाति के लोगों ने 1822 तथा 1825-26 में उपद्रव कर दिए. और सातारा के आसपास लूट पाट मचा दी.
इसी समय 1839 में सातारा के राजा प्रताप सिंह के देश निष्कासन के कारण समस्त प्रदेश में असंतोष व्याप्त रहा . तथा 1840-40 में दंगे हुए. 1844 में कोल्हापुर तथा सावंतवाडी में प्रशासनिक पुनर्गठन के कारण विद्रोह हुए. जिसे शक्तिशाली सैनिकी हस्तक्षेप के बाद बहुत ही मुश्किल से दबाया जा सका.
1794 विजयनगरम के राजा को कंपनी ने अपनी सेना भंग करने को कहा तथा ₹300000 भेंट देने को विवश कर दिया. राजा द्वारा इस बात को अस्वीकार करने पर उनकी जागीर जप्त कर ली गई. इस पर राजा ने विद्रोह कर दिया. राजा को सेना व जनता का पूर्ण रुप से सहयोग प्राप्त था. इस युद्ध में यद्यपि राजा वीरगति को प्राप्त हुआ परंतु अंग्रेजों ने उसके पुत्र को जागीर वापस कर दी और भेंट की रकम भी कम कर दी.
डिंडीगुल तथा मालाबार के पोलिगार लोगों ने अंग्रेजी भूमि कर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया.जो कि 1801 से 1805 तक चला. मद्रास प्रेसीडेंसी में पोलिगार ओके इक्के-दुक्के विद्रोह 1856 तक होते रहे.1805 में अंग्रेजी प्रशासन के दृश्यता पूर्ण व्यवहार के विरुद्ध त्रावणकोर के राजा दीवान वेला तम्पी ने विद्रोह किया. जिसे दबाने के लिए बड़ी संख्या में सेना की मदद लेनी पड़ी.
अंग्रेजों पर रायबरेली के सैयद अहमद (1786 -1831) द्वारा चलाए गए आंदोलन ‘ वहाबी आंदोलन’ ( Wahabi movement) का भी बहुत प्रभाव पड़ा. यह एक मुसलमान आंदोलन था, तथा इस्लाम को उसके मूल रूप में स्थापित करने के पक्ष में था. अर्थात यह इस्लाम में किसी भी सुधार व परिवर्तन के विरुद्ध था.
इसके लिए सय्यद ने अपने आपको इसका इमाम( नेता) बनाकर चार खलीफा( उप नेता) नियुक्त किए और इस प्रकार एक देशव्यापी संगठन गठित किया. जिस के संकेत गुप्त थे. उत्तर-पश्चिमी कबायली प्रदेश में सिधाना को आंदोलन का केंद्र बनाया गया. तथा भारत में पटना को मुख्य केंद्र बनाकर बंगाल, यूपी, मुंबई, हैदराबाद, मद्रास आदि स्थानों पर इसकी शाखाएं स्थापित की गई. क्योंकि उनका उद्देश्य मुस्लिम राष्ट्र स्थापित करना था इसलिए उन्होंने पंजाब में सिखों के राज्य के विरुद्ध जिहाद छेड़ दिया. तथा 1830 में पेशावर जीत लिया. परंतु जल्द ही वह पुनः छिन गया और सैयद अहमद युद्ध में मारे गए.
1849 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने सिख राज्य को समाप्त कर दिया. जिससे अंग राम राज्य के विरुद्ध वहाबियों में रोष व्याप्त हो गया. 18 सो 57 के विद्रोह के समय अंग्रेज विरोधी भावनाओं के प्रचार में वहाबियों का योगदान बहुत सराहनीय रहा था. 1807 के बाद अंग्रेजी सरकार ने वहाबियों के विरुद्ध व्यापक अभियान शुरू कर दिया. सिधाना पर सैनिक दबाव डाला और वहाबियों पर देश में अनेक स्थानों पर देशद्रोह के अभियोग चलाएं. यद्यपि यह आंदोलन राष्ट्रव्यापी न बन सका परंतु इससे मुसलमानों के पृथकतावाद की भावना का सूत्रपात अवश्य हुआ.
अंग्रेजी सरकार ने सेना में भर्ती को निरंतर जारी रखा जोकि साम्राज्य विस्तार के साथ साथ आवश्यक भी था. परंतु सैनिकों को बहुत कम वेतन मिलता था. और अन्य सुविधाएं भी नहीं के बराबर थी. सैनिकों को और भी बहुत सी शिकायतें थी जिस कारण समय-समय पर स्थानीय स्तर के अनेक सैनिक विद्रोह हुए थे. 1764 में मुनरो की एक बटालियन बक्सर की रणभूमि में मीर कासिम से जा मिली थी. 1806 में सामाजिक तथा धार्मिक रीति रिवाजों में हस्तक्षेप के विरुद्ध वेल्लोर में सैनिक विद्रोह हुआ.
1824 में 47 वी पैदल टुकड़ी ने पर्याप्त भत्ते के बिना बर्मा युद्ध पर जाने के आदेश के विरुद्ध में विद्रोह कर दिया. 1825 में आसाम के तोपखाने ने विद्रोह कर दिया तथा 1858 में कम भत्ते के विरुद्ध सोलापुर में सैनिकों ने विद्रोह किया 1844 में 34वीं एन आई तथा 64वीं रेंजमेंट ने पुराना भत्ता ना मिलने तक सिंध अभियान में जाने से इंकार कर दिया.
1849-50 में पंजाब पर अधिकार के समय से ही सेना में विद्रोही भावनाएं जगी थी तथा अंत में 1850 में गोविंदगढ़ के रेंजमेंट ने विरोध कर दिया. इस प्रकार अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध प्रारंभ से ही समय समय व स्थान स्थान पर संपूर्ण देश में विद्रोह होते रहे थे. इसके लिए प्रशासनिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सभी प्रकार के कारण जिम्मेदार थे. धीरे-धीरे सुलगती हुई आग 1857 में धधक उठी और उसने अंग्रेजी साम्राज्य को हिलाकर रख दिया.