आर्यों के दो मुख्य महाकाव्य थे-“रामायण” तथा “महाभारत” .
“रामायण” हिन्दुओं का प्राचीनतम और सर्वप्रिय महाकाव्य है. इसके सात खण्ड और 24,000 श्लोक हैं. इसे साधारणतः महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित माना जाता है.
“महाभारत” के अठारह भाग और लगभग एक लाख श्लोक हैं. इसे व्यास मुनि द्वारा रचित माना जाता है. हॉपकिन्स का विचार है कि इसकी रचना एक व्यक्ति या एक पीढ़ी ने नहीं की थी.
वास्तव में यह एक महान ऐतिहासिक घटना की गाथा है जिसे ‘राजाओं के प्रशंसक, पारिवारिक पुरोहित और भाटों ने लिपिबद्ध किया है. ये तीनों व्यक्ति प्रायः एक ही होते थे.’
जैकोबी (Jacobi) और मैक्डोनेल (MacDonell) ने दोनों महाकाव्यों को परंपरागत कथाओं पर आधारित माना है. डा. वी. ए. स्मिथ (Dr. V. A. Smith) का विचार है “मुझे तो यह कविता (रामायण) कल्पना की उत्पत्ति प्रतीत होती है और संम्भवतः कोशल और उसकी राजधानी अयोध्या से सम्बन्धित किसी धुन्धली-सी पारम्परिक कहानियों पर आधारित थी.”
महाकाव्यों का काल
पुराने विचारों के हिन्दू ‘रामायण’ को “त्रेता” युग की तथा महाभारत को “द्वापर” युग की कृति मानते हैं.
पार्जिस्टर (Pargiter) का कथन है कि ‘महाभारत’ का युद्ध लगभग 1950 ई. पू. हुआ था.
डा. विण्टरनिट्ज (Winternitz) के अनुसार वर्तमान आकृति में रामायण की रचना वाल्मीकि ऋषि ने तीसरी शती ई. पू. पुरातन लोकगीतों के आधार पर की थी.
इतना स्पष्ट है कि महाकाव्य काल को वैदिक काल के बाद और बौद्ध व जैन धर्मों की उत्पत्ति से पहले का काल माना जाता है.
महाकाव्यों का ऐतिहासिक मूल्य
कुछ विद्वानों ने महाकाव्यों के ऐतिहासिक महत्व को नकारा है. चाहे इनमें कुछ बातों को बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया है फिर भी इनमें उस काल की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है जिससे उस समय के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनीतिक जीवन पर प्रकाश डाला जा सकता है.
सामाजिक अवस्था
अन्तर्जातीय विवाह के कारण नयी जातियां बनीं. ‘बहु विवाह’ तथा ‘नियोग’ की प्रथा का प्रचलन था. “विधवा विवाह” के निर्देश प्राप्त नहीं हैं. किंतु महाकाव्य युग के अंत तक “बाल विवाह ” आरम्भ हो चुके थे. ‘स्वयंवर’ रचाये जाते थे (राजवंशों में ही स्वयंवर रचाने के प्रमाण मिलते हैं).
“महाभारत’ काल में ‘सती प्रथा‘ का प्रचलन हो गया था. नारी की स्थिति अवनति की ओर थी. लोग सादे सूती, रेशमी और ऊनी वस्त्रों को धारण करते थे. लोग खेलप्रिय थे तथा मद्यपान, जुआ, वैश्यावृत्ति आदि प्रचलित थे. बोलचाल की भाषा संस्कृत थी लेकिन प्राकृत भाषा का भी आरम्भ हो रहा था. नक्षत्र-विद्या ने भी प्रगति की.
आर्थिक अवस्था
कृषि और पशुपालन व्यवसाय उन्नत व मुख्य था. व्यापारियों के संघ का संचालन “महाजन” करते थे. राजा इन संघों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था. देशी और विदेशी व्यापार में वृद्धि हुई. सूती, ऊनी तथा रेशमी कपड़ों की कताई, बुनाई, कढ़ाई, रंगाई आदि का कार्य होता था. सोना, मोती, कीमतो पत्थर आदि का भारी मात्रा में उत्पादन होता था.
धार्मिक अवस्था
वैदिक देवताओं का स्थान ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव ने लिया था. अवतारवाद में विश्वास व मूर्ति पूजा का प्रचलन हो गया था. अनेक यज्ञ भी करवाये जाते थे. महाकाव्य काल में ब्राह्मणों के स्थान पर क्षत्रियों का महत्व बढ़ गया था. ‘कर्म दर्शन’ का महत्व बढ़ गया था.
राजनीतिक अवस्था
उस समय सामान्यतः राजतंत्रात्मक सरकारें थीं. किन्तु कुछ लोकतंत्र राज्य भी थे. राजा निरंकुश नहीं था. उसे न्याय और नैतिकता के सिद्धांतों पर चलना पड़ता था.
गणतंत्र दो प्रकार के थे-गण (अकेले गणतन्त्र) तथा संघटक (सामूहिक गणतन्त्र). गणतन्त्रों के प्रमुखों को “ईश्वर” कहा जाता था. राज्य के विभिन्न सामन्तों का उल्लेख है जैसे-मन्त्रिन् (मन्त्रि-परिषद् के सदस्य), अमात्य, सचिव पार्षद, सहाय, धार्मिक, अर्थकारिन इत्यादि.
विभिन्न विभागों के मुख्याधिकारियों के नाम थे-मंत्री, पुरोहित, चमूपति, द्वारपाल, कारागाराधिकारी, द्रव्यसंचयकृत, युवराज, प्रदेष्टा, नगराध्यक्ष, कार्य-निर्माणकृत, दुर्गपाल, अट्वीपालक, राष्ट्रान्तपालक, सभाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष और दण्डपाल.
ग्राम या गाँव शासन की सबसे छोटी इकाई था. इसका मुखिया “ग्रामणी” होता था. “दशग्रामी”-10 गाँवों का “विशंतीप-20 गाँवों का, “शतग्रामी’ या . ग्रामशताध्यक्ष-100 गाँवों का और “अधिपति-1000 गाँवों का अधिकारी होता था. भूमि-कर तथा खनिजों से प्राप्त आय राज्य की आय के प्रमुख साधन थे.
एक मन्त्री और चार जातियों की सहायता से राजा न्याय का प्रशासन चलाता था. स्थानीय पंच व अधिकारी भी अपने स्तर पर न्याय करते थे.
सेना को नियमित ढंग से वेतन दिया जाता था. इसके चार भाग थे पैदल, अश्व, हाथी और रथ. इनके अतिरिक्त परिवहन, जल सेना, गुप्तचर और स्वयंसेवक भी थे. धनुष-बाण, तलवार, गदा, भाला, अग्नि शस्त्र, प्रक्षेपस्त्र
आदि प्रयोग किये जाते थे. युद्ध नीति से लड़ा जाता था. “चक्रव्यूह’ की रचना की जाती थी. ‘कृष्ण’ के “सुदर्शन चक्र’ व “विमानों’ का भी उल्लेख है.
विवाह प्रणालियाँ
प्राचीन भारत में आठ प्रकार की विवाह प्रणालियाँ प्रचलित थीं, इन्हें “अष्ट विवाह ” कहा जाता था.
अष्ट विवाह
(i) ब्राह्म विवाह
समान वर्ण में कन्या का मूल्य देकर विवाह.
(ii) दैव विवाह
यज्ञ कर्म करने वाले ब्राह्मण को आभूषणों से सुसज्जित वधु अर्पित की जाती थी.
(iii) प्रजापत्य विवाह
बिना लेन-देन के विवाह (लड़के द्वारा इसमें (पहली) पत्नी के जीवित रहने तक दूसरा विवाह न करने की शपथ लेनी पड़ती थी.)
(iv) आर्ष विवाह
कन्या के पिता को वर एक जोड़ी बैल प्रदान करता था.
(v) असुर विवाह
कन्या को उसके माता-पिता से ख़रीदा जाता था. यह निकृष्ट माना जाता था.
(vi) राक्षस विवाह
पराजित राजा की पुत्री, बहन या पत्नी से बल-पूर्वक विवाह करना.
(vii) गान्धर्व विवाह
प्रेम सम्बन्धों के आधार पर विवाह करना.
(viii) पैशाच विवाह
विश्वासघात द्वारा, किसी कन्या से बल-पूर्वक बलात्कार करने वाले को उससे शादी करनी पड़ती थी. यह विवाह समाज में अवैध था.
स्मृतियों में ब्राह्म विवाह, दैव विवाह, आर्ष विवाह तथा प्रजापत्य विवाह को ही मान्यता दी गयी है.
जाति प्रथा
जाति की उत्पत्ति
आजकल जाति जन्म पर आधारित है. आरम्भ में वर्ण कर्म पर आधारित था. वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख ऋग्वेद संहिता के 10/90 में तथा तैतिरीय संहिता 7/7/1 में बताया गया है कि चार वर्ण प्रजापति ब्रह्मा के चार अंगों-मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, पेट से वैश्य तथा पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई.
प्रो. रैप्सन ने इसकी उत्पत्ति हेतु आर्य और अनार्यों के गोरे और काले रंग को आधार माना है. डा. श्याम शास्त्री ने विभिन्न रंगों के वस्त्र धारण करने वाले बर्गो (सफेद-ब्राह्मण, लाल-क्षत्रिय, पीले-वैश्य तथा काले-शूद्र) को इसका आधार माना है. प्रमाणित तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि कर्म ही प्रारम्भ में वर्ण का आधार था.
“परशुराम’ ब्राह्मण होकर भी कर्म से क्षत्रिय था. “विश्वामित्र’ जन्म से क्षत्रिय था, महर्षि “वासिष्ट” वैश्या की संतान थे और ऋषि “पराशर” चण्डाल का पुत्र था. अतः कर्म ही वर्ण का आधार था. विद्वान वर्ग ब्राह्मण, शासक वर्ग क्षत्रिय, साधारण वर्ग वैश्य और दास वर्ग शूद्र कहलाये.
वर्ण और जाति में अंतर
वर्ण जातियों का सामूहिक नाम है. जाति वर्ण का एक अंग है. जैसे ब्राह्मण वर्ण की कई जातियां बन गयी शर्मा, जोशी, कौशिक आदि. इसी प्रकार अन्य वर्गों की भी कई जातियां और उपजातियां बनीं. अतः वर्ण वृक्ष की जड़ के समान है और जातियां उसकी शाखाएँ.
जाति प्रथा का विकास
“केतकर” का कहना है कि चार वर्णों ने लगभग 3000 जातियों को जन्म दिया. जाति प्रथा के विकास के कई कारण थे. जैसे, भारत देश की विशालता, छोटे-छोटे काम करने वालों का भिन्न वर्ग बनना, जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि धर्मों का अस्तित्व में आना, विदेशियों (इण्डो-बैक्ट्रियन, इण्डो-पार्थियन, हूण, मुसलमान आदि) से मेल, अन्तर्जातीय विवाह, स्थान परिवर्तन, रीति-रिवाजों में मतभेद होने से, अहिंसा की विचारधारा तथा ब्राह्मण वर्ग के स्वार्थी होने से भी जाति प्रथा का विकास हुआ.
जाति प्रथा के गुण
जाति प्रथा ने भारतीय संस्कृति, रक्त की शुद्धता तथा चरित्र को बनाये रखा. श्रम का बंटवारा होने के कारण सामाजिक कार्य अच्छी तरह चलने लगे, कार्य कुशलता में वृद्धि हुई व व्यवसाय ढूंढने की समस्या न रहीं.
जाति प्रथा की हानियाँ
जाति प्रथा राजनैतिक उन्नति में बाधा बनी क्योंकि देश की सुरक्षा का कार्य केवल क्षत्रियों का ही था. अतः विदेशी आक्रमणकारी यहां सफलता प्राप्त कर गये. संकीर्ण विचारधारा से विदेशी व्यापार, कला तथा उद्योगों को धक्का पहुंचा.
छुआ-छूत आदि से सामाजिक कुरीतियाँ फैली. जाति प्रथा अन्तर्राष्ट्रीय भावना और प्रजातन्त्र के विपरीत रही.
भारत में इसका भविष्य
भारत में इस प्रथा को बड़ी निन्दा से देखा जाता है और इसे संविधान द्वारा भी बंद कर दिया गया है. इसका भविष्य देश में अंधकारमय है क्योंकि शिक्षा के प्रसार से प्रत्येक व्यक्ति जाति प्रथा की वास्तविकता को जान गया है.
“रामायण” हिंदुओं का प्राचीनतम और सर्वप्रिय महाकाव्य है.
पुराने विचारों के हिन्दू ‘रामायण’ को “त्रेता” युग की तथा महाभारत को “द्वापर” युग की कृति मानते हैं.
प्राचीन भारत में आठ प्रकार की विवाह प्रणालियाँ प्रचलित थीं, इन्हें “अष्ट विवाह ” कहा जाता था.