भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन-राष्ट्रवाद का उदय (Rise of Nationalism)-भारत में संगठित राष्ट्रीय आंदोलन उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रारम्भ हुआ था. मुख्य रूप से ब्रिटिश साम्राज्यवाद (British Imperialism) की नीतियों की चुनौतियों के प्रत्युत्तर में भारतीयों ने एक राष्ट्र के रूप में सोचना प्रारम्भ किया था. भारतीयों में राष्ट्रीय भावना के विकास तथा भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के लिए स्वयं ब्रिटिश शासन ने आधार तैयार किया.
राष्ट्रवाद के उदय के कारण (Causes of the Rise of Nationalism)
राष्ट्रवाद के उदय के लिए विभिन्न कारण सम्मिलित रूप से जिम्मेदार थे. मुख्य रूप से ब्रिटिश शासन तथा उसके प्रत्यक्ष तथा परोक्ष परिणामों ने भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के लिए भौतिक, नैतिक तथा बौद्धिक परिस्थितियां तैयार की. धीरे-धीरे भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक समूह ने देखा कि उसके हित कभी भी अंग्रेजी शासन के हाथ में सुरक्षित नहीं रह सकते.
अंग्रेजी सरकार की छत्र-छाया में किसानों से मालगुजारी के नाम पर उपज का बहुत बड़ा भाग ले लिया जाता था. जमींदारों, व्यापारियों तथा सूद खोरों को किसानों से लगान वसूलने तथा तरह-तरह से उनका शोषण करने के लिए सरकारी पदाधिकारियों व कर्मचारियों का पूरा सहयोग प्राप्त था. सरकारी नीति जिसमें विदेशी प्रतियोगिता को प्रोत्साहन दिया जा रहा था के कारण दस्तकार तथा शिल्पी भी बेरोजगार होने लगे थे. कारखानों, खदानों तथा बागानों में मजदूरों का तरह-तरह से शोषण हो रहा था.
सरकार एक ओर विदेशी पूंजीपतियों को प्रोत्साहित कर रही थी दूसरी ओर देश के लोगों को पूरी तरह से अनदेखा किया जा रहा था. सरकार की व्यापारिक, कर, चुंगी तथा यातायात संबंधी नीतियों के कारण भारतीय पूंजीपति वर्ग को बहुत नुकसान उठाना पड़ रहा था. समाज के सभी वर्गों के हो रहे शोषण के कारण लोगों ने महसूस किया कि ब्रिटिश सरकार के अधीन अब और लम्बे समय तक नहीं रहा जा सकता. उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में राष्ट्रीयता तथा स्वतंत्रता का दौर तेजी के साथ चल रहा था तथा जर्मनी व इटली स्वतंत्र राष्ट्र बन चुके थे, जिसका भारतीयों पर राष्ट्रवादी विचारों के सन्दर्भ में बहुत ही अनुकूल प्रभाव पड़ा.
पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति ने राष्ट्रवादी भावना जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया. पढ़े-लिखे भारतीयों को बर्क, मिल, ग्लैडस्टोन, वाइट, मैकाले जैसे लोगों के विचार सुनने का अवसर मिला तथा मिल्टन, शैले व वायरन आदि महान कवियों की कविताएं पढ़ने एवं रूसो, मैजिनी तथा वाल्टेयर आदि लोगों के विचारों को जानने का सौभाग्य मिला. जिससे भारतीयों में राष्ट्रवादी भावनाओं ने जन्म लिया. अनेक धार्मिक तथा समाज सुधारकों, जैसे- राजाराम मोहन राय, देवेन्द्र नाथ ठाकुर, किशोर चन्द्र सेन, पी. सी. सरकार, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, स्वामी दयानन्द सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानंद आदि ने भारत के अतीत का गौरवपूर्ण चित्र उपस्थित कर भारतीयों में राष्ट्रवाद के विकास के लिए महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया. अनेक समाचार-पत्रों तथा साहित्य ने लोगों में राष्ट्रीय जागरण की भावना को जगाया. राजाराम मोहन राय ने सर्वप्रथम राष्ट्रीय प्रेस की नींव डाली तथा “संवाद कौमुदी‘ बंगला में तथा ‘मिरात उल अखबार‘ फारसी में, का सम्पादन कर भारत में राजनैतिक जागरण की दिशा में प्रयास किया. इनके अतिरिक्त इण्डियन मिरर, बम्बई समाचार, दि हिन्दू, पैट्रियाट, अमृत बाजार पत्रिका, दि केसरी आदि समाचार-पत्रों का प्रभाव भी बहुत महत्वपूर्ण था.
राष्ट्रीय साहित्य का भी राष्ट्रीय भावना की उत्पत्ति की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान रहा.भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, बाल कृष्ण भट्ट, बद्री नारायण चौधरी, दीन बन्धु मित्र, हेम चन्द्र बैनर्जी, नवीनचन्द्र सेन, बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय तथा रवीन्द्र नाथ ठाकुर की रचनाओं ने लोगों को काफी हद तक प्रभावित किया और लोगों में राष्ट्रीय चेतना जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. तीव्र परिवहन तथा संचार साधनों में रेल, डाक-तार आदि के विकास ने भी राष्ट्रवाद की जड़ को मजबूत किया. इनके अतिरिक्त लार्ड लिटन के कार्यकाल में 1876 से 1884 तक बिना सोचे-समझे ब्रिटिश सरकार द्वारा कुछ ऐसे कार्य किए गए जिनसे राष्ट्रीय आन्दोलन को तीव्र गति प्राप्त हुई. 1877 में जब दक्षिण भारत के लोग अकाल से पीड़ित थे तो लिटिन ने ऐतिहासिक दिल्ली दरबार लगाया था.
1878 में भारतीयों को सार्वजनिक सम्पत्ति का गला घोटने के लिए प्रसिद्ध भारतीय प्रेस अधिनियम स्वीकार किया गया. भारतीयों और यूरोपियनों के बीच भेद-भाव पर आधारित शस्त्र अधिनियम भी इसी समय स्वीकार किया गया. अन्त में ‘इल्बर्ट बिल’ ने भारतीयों के दिलों को पुनः जबरदस्त ठेस पहुंचाई तथा भारतीयों के अन्दर राष्ट्रीयता की भावना जगाने में एक बार फिर महत्वपूर्ण योगदान दिया.
इस प्रकार विदेशी साम्राज्य की भेदभाव पूर्ण नीतियों के परिणामस्वरूप भारतीयों में वाद की भावनाओं ने जन्म लेना प्रारम्भ किया. इस प्रकार एक शक्तिशाली साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन का धीरे-धीरे विकास हुआ. इसने लोगों में एकता स्थापित करने और साम्राज्यवाद का मिलकर विरोध करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया.