राष्ट्रीय राजनीति, 1935-39 (National Politics, 1935-39) भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन

राष्ट्रीय राजनीति, 1935-39 (National Politics, 1935-39) भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (Indian National Movement)

राष्ट्रीय राजनीति, 1935-39 (National Politics, 1935-39) भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (Indian National Movement)

भारत सरकार अधिनियम, 1935 (Govt. of India Act, 1935)

  • लंदन में 1932 में हुए तीसरे गोलमेज सम्मेलन में लिए गए निर्णयों के परिणामस्वरूप ‘भारत सरकार अधिनियम, 1935′ बनाया गया.
  • तृतीय गोलमेज सम्मेलन में भी कांग्रेस ने भागीदारी नहीं की थी.
  • इस अधिनियम में एक नए अखिल भारतीय संघ की स्थापना तथा प्रांतों में प्रांतीय स्वायत्तता के आधार पर एक नई शासन प्रणाली की व्यवस्था थी.
  • केन्द्र में दो सदनों वाली एक संघीय विधायिका की व्यवस्था थी, जिसमें रजवाड़ों को चिन्न-भिन्न प्रतिनिधित्व दिया गया था.
  • परन्तु रजवाड़ों के प्रतिनिधियों का चुनाव जनता द्वारा न होकर उन्हें वहां के शासक मनोनीत करते थे.
  • गवर्नर-जनरल और गवर्नरों की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार करती थी तथा वे उसी के प्रति उत्तरदायी थे.
  • प्रांतों को अधिक स्थानीय अधिकार दिए गए थे.
  • प्रान्तीय विधान सभाओं के प्रति उत्तरदायी मंत्रियों का प्रांतीय प्रशासन के हर विभाग पर नियंत्रण था.
  • यह कानून राष्ट्रवादियों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सका.
  • क्योंकि आर्थिक और राजनीतिक शक्ति अभी भी ब्रिटिश सरकार के हाथों में केन्द्रित थी.
  • कांग्रेस ने ‘पूरी तरह निराशाजनक’ कह कर इस कानून की निंदा की.
  • इस अधिनियम का कड़ा विरोध करने के बावजूद कांग्रेस ने इसके अन्तर्गत होने वाले चुनावों में भाग लेने का निर्णय किया, ताकि इस कानून की अलोकप्रियता को सिद्ध किया जा सके.
  • फरवरी, 1937 में हुए चुनावों में कांग्रेस को भारी सफलता प्राप्त हुई.
  • 11 में से सात प्रांतों में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बने तथा दो प्रान्तों में कांग्रेस ने साझी सरकारें बनाई.
  • केवल बंगाल और पंजाब में गैर-कांग्रेसी मंत्रीमंडल बने.

चुनाव और कांग्रेसी मत्रिमंडल (The Elections and Congress Triumph)

  • 1935 के अधिनियम के तहत मंत्रिमंडल को जो सीमित अधिकार प्राप्त थे उनके सहारे उन्होंने जनता की दशा सुधारने के हर सम्भव प्रयास किए.
  • मंत्रियों ने नागरिक स्वतंत्रता को बढ़ावा दिया, प्रैस और अतिवादी संगठनों पर लगे प्रतिबन्ध हटाये, मजदूर संघों और किसान सभाओं को उन्होंने अपने ढंग से काम करने की छूट प्रदान की, पुलिस के अधिकारों में कटौती की तथा क्रान्तिकारी आतंकवादियों समेत राजनीतिक कैदियों को बढ़ी संख्या में रिहा किया.
  • इस प्रकार कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने लोगों को सामाजिक आर्थिक दशा सुधारने आदि के लिए अनेक कदम उठाये.
  • कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के निर्माण से देश में एक आत्म-विश्वास पैदा हुआ.
  • अंग्रेजों को एक करारा प्रत्युत्तर मिला कि कांग्रेस केवल अडंगा लगाना ही नहीं जानती है वरन् वह सक्रिय रूप से देश का प्रशासन चलाने में भी कुशल है.

सामाजवादी विचारों का उदय (Rise of Socialistic Ideas)

  • 1930 के आसपास अधिकतर विश्व घोर आर्थिक मंदी की चपेट में था.
  • परन्तु इसी समय सोवियत संघ की आर्थिक स्थिति इसके ठीक विपरीत थी.
  • 1929 से 1936 के बीच सोवियत औद्योगिक उत्पादन चार गुना से भी अधिक हो गया.
  • इस प्रकार पूंजीवादी प्रणाली के स्थान पर समाजवादी प्रणाली के विचारों का तेजी से प्रसार हुआ.
  • जिसका प्रभाव कांग्रेस के अन्दर भी तेजी के साथ हुआ.
  • राष्ट्रीय आंदोलन के अंदर और देश के पैमाने पर एक समाजवादी भारत की तस्वीर को लोकप्रिय बनाने में जवाहरलाल नेहरु ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
  • इनका विचार था कि राजनीतिक स्वाधीनता का अर्थ जनता की आर्थिक शक्ति, खासकारै मेहनती किसानों की सामंती शोषण से मुक्ति होनी चाहिए.
  • समाजवादी प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप ही 1935 के बाद पी. सी. जोशी के नेतृत्व में कम्युनिष्ट पार्टी का प्रसार हुआ.
  • इसी बीच आचार्य नरेन्द्र देव तथा जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना हुई.
  • कांग्रेस के अन्दर वामपंथी प्रवृत्ति के मजबूत होने का प्रमाण यह था कि 1929, 1936 और 1937 में पं. जवाहरलाल नेहरु तथा 1938 तथा 1939 में सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिय चुने गए.
  • पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1936 के लखनऊ अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था से मूलगामी अर्थ में भिन्न एक नई सभ्यता का विकास करना होगा.
  • उनका कहना था कि,-

“मेरा विश्वास है कि विश्व की समस्याओं और भारत की समस्याओं का एकमात्र समाधान समाजवाद है और जब मैं इस शब्द का उपयोग करता हैं तो इसे अस्पष्ट मानवतावादी नहीं बल्कि वैज्ञानिक, आर्थिक अर्थ में करता हैं… इसका मतलब है हमारे राजनीतिक और सामाजिक ढांचे में व्यापक तथा क्रान्तिकारी परिवर्तन, कृषि और उद्योग के निहित स्वार्थों का उन्मूलन तथा भारत के सामंती और निरंकुश रजवाड़ों की प्रणाली की समाप्ति. इसका अर्थ है कि एक संकुचित अर्थ को छोड़कर निजी सम्पत्ति का उन्मूलन तथा वर्तमान मुनाफा प्रणाली की जगह सहकारी सेवा के उच्चतर आदर्श की स्थापना. अंतत: इसका अर्थ है हमारी सहज प्रवृत्तियों, आदतों और इच्छाओं में परिवर्तन.”

  • इस प्रकार देश में मूलगामी शक्तियों के प्रसार का प्रमाण जल्द ही कांग्रेस के कार्यक्रमों तथा नीतियों में देखने को मिला.
  • 1938 में जब कांग्रेस के अध्यक्ष सुभाषचन्द्र बोस थे इस समय कांग्रेस ने आर्थिक योजना का विचार अपनाया और जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय योजना समिति बनाई.
  • चौथे दशक की महत्वपूर्ण घटना यह थी कि गांधीजी ने भी अधिकतर मूलगामी आर्थिक नीतियों को स्वीकार कर लिया.

किसान और मजदूर आंदोलन (Peasants and Workers Movement)

  • 1930 की आर्थिक मंदी ने भारतीय किसानों व मजदूरों की स्थिति भी बिगाड़ दी थी.
  • 1932 के अन्त तक खेतिहर पैदावार की कीमतें 50 प्रतिशत से अधिक गिर चुकी थी.
  • पूरे देश में किसान भूमि सुधारों मालगुजारी और लगान में कमी तथा कर्ज से राहत की मांग करने लगे थे.
  • कारखानों और बागानों के मजदूर भी अब काम की बेहतर परिस्थितियों तथा ट्रेड यूनियन अधिकार दिए जाने की बढ़-चढ़कर मांग कर रहे थे.
  • सविनय अवज्ञा आंदोलन, वामपंथी पार्टियों तथा गुटों ने राजनीतिक कार्यकर्ताओं की एक ऐसी नई पीढ़ी पैदा की जो किसानों और मजदूरों के संगठन के लिए समर्पित थी.
  • परिणामस्वरूप शहरों में ट्रेड यूनियनों का देश के अधिकतर भागों में, मुख्य रूप से संयुक्त प्रांत, बिहार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और पंजाब में किसान सभाओं का तेजी से प्रसार हुआ.
  • 1936 में पहला अखिल भारतीय किसान संगठन स्वामी सहजानंद सरस्वती की अध्यक्षता में बना, जिसका नाम ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ रखा गया.
  • किसानों और मजदूरों ने अब सक्रिय रूप से राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेना भी शुरू कर दिया.

विश्व की घटनाओं में दिलचस्पी (Interest in World Affairs)

  • 1930 के दशक के मध्यान्तर में कांग्रेसी नेता विश्व की घटनाओं तथा उनके प्रभावों व परिणामों के बारे में जानने के लिए बढ़-चढ़कर दिलचस्पी लेने लगे थे.
  • पूर्व में ही कांग्रेस ने यह स्पष्ट कर दिया था कि ब्रिटेन के हितों की रक्षा करने के लिए मुख्य रूप से एशिया व अफ्रीका में भारतीय सेना और भारतीय संसाधनों का प्रयोग न किया जाए.
  • कांग्रेस ने धीरे-धीरे स्वयं ही साम्राज्यवादी प्रसार के विरोध पर आधारित एक विदेश नीति विकसित कर ली थी.
  • फरवरी, 1927 में कांग्रेस की ओर से जवाहरलाल नेहरू ने ब्रुसेल्स में आयोजित उत्पीडित जातीयताओं के सम्मेलन में भाग लिया.
  • चौथे दशक में कांग्रेस ने विश्व के किसी भी स्थान पर जारी साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक कड़ा रुख अपनाया और एशिया तथा अफ्रीका के राष्ट्रीय आंदोलनों को समर्थन दिया.
  • इस समय इटली, जर्मनी और जापान में उभरते फांसीवाद को भी कांग्रेस ने कटु आलोचना की.
  • यह साम्राज्यवाद तथा नस्लवाद का सबसे भयानक रूप था.
  • कांग्रेस ने इथियोपिया, स्पेन, चेकोस्लोवाकिया तथा चीन पर फांसीवादी ताकतों के हमले के खिलाफ संघर्ष में वहां की जनता का पूरा समर्थन किया.
  • 1937 में जब जापान ने चीन पर हमला किया तो कांग्रेस ने एक प्रस्ताव द्वारा भारतीय जनता से आग्रह किया कि वे “चीन की जनता के प्रति अपनी सहानुभूति जताने के लिए जापानी वस्तुओं के प्रयोग से बचें.”
  • अगले वर्ष 1938 में कांग्रेस ने डा. एम. अटल के नेतृत्व में डाक्टरों का एक दल भी चीनी सेनाओं के साथ काम करने के लिए भेजा.
  • कांग्रेस का यह विश्वास था कि भारत का भविष्य फांसीवाद तथा स्वाधीनता, समाजवाद और जनतंत्र की शक्तियों के बीच छिड़ने वाले युद्ध से सीधा जुड़ा हुआ है.
  • सभी भारतीय नेताओं की इस सम्बन्ध में एक समान विचारधारा थी.
  • कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरु ने विश्व को प्रगतिशील शक्तियों के प्रति स्वाधीनता के लिए तथा राजनीतिक और सामाजिक बंधन तोड़ने के लिए लड़ने वालों के प्रति पूरे सहयोग का वचन दिया.

रजवाड़ों की जनता का संघर्ष (State People’s Struggle)

  • 1930 के दशक की एक महत्वपूर्ण घटना यह थी कि राष्ट्रीय आंदोलन का प्रसार रजवाड़ों तक भी फैल गया.
  • अधिकांश रजवाड़ों में आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियाँ नरक से भी बद्त्तर थी.
  • रजवाड़ों की आय का बहुत बड़ा भाग राजा और उसके परिवार के भोग-विलास पर खर्च होता था.
  • पूर्व के इतिहास में आंतरिक विद्रोह या बाहरी आक्रमण की चुनौतियां इन भ्रष्ट और पतित राजा-महाराजाओं की मनमानी पर कुछ हद तक नियंत्रण रखती थीं.
  • परन्तु ब्रिटिश शासन ने राजाओं को इन दोनों खतरों से सुरक्षित बना दिया और वे अब खुलकर अपने शासन का दुरुपयोग करने लगे.
  • ब्रिटिश अधिकारी भी अब राष्ट्रीय एकता के विकास में बाधा डालने तथा उदीयमान राष्ट्रीय आंदोलन का मुकाबला करने के लिए राजाओं का इस्तेमाल करने लगे.
  • देशी राजा भी किसी जन-विद्रोह के आगे अपनी सुरक्षा के लिए ब्रिटिश सत्ता पर निर्भर थे और उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति दुश्मनी का रवैया अपनाया.
  • 1921 में चेंबर ऑफ प्रिंसेज की स्थापना इसलिए की गई ताकि महाराजे आपस में मिल-बैठ कर ब्रिटिश मार्गदर्शन में अपने साझे हित के विषयों पर विचार कर सकें.
  • भारत सरकार कानून, 1935 में भी प्रस्तावित संघीय ढांचे की योजना इस प्रकार रखी गई थी कि राष्ट्रवादी शक्तियों का नियंत्रण बना रहे.
  • इसमें यह व्यवस्था भी थी कि निचले सदन में कुल सीटों के 1/3 भाग तथा ऊपरी सदन में कुल सीटों के 2/5 भाग पर रजवाड़ों का प्रतिनिधित्व रहेगा.
  • अनेक रजवाड़ों की जनता अब जनतांत्रिक अधिकारों तथा लोकप्रिय सरकारों की मांग को लेकर आंदोलन करने लगी.
  • विभिन्न रजवाड़ों में राजनीतिक गतिविधियों के तालमेल के लिए दिसम्बर, 1927 में ही ‘आल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कांफ्रेस’ की स्थापना हो चुकी थी.
  • दूसरे असहयोग आंदोलन ने भी रजवाड़ों की जनता पर काफी गहरा प्रभाव डाला और उन्हें राजनीतिक गतिविधियों के लिए प्रेरित किया.
  • अनेक रजवाड़ों में जनसंघर्ष चलाए गए. राजाओं ने इन संघर्षों का सामना निर्दयतापूर्वक किया इनमें से कुछ ने साम्प्रदायिकता का सहारा भी लिया.
  • हैदराबाद के निजाम ने जन आंदोलन को मुस्लिम-विरोधी और कश्मीर के महाराजा ने उसे हिंदू विरोधी घोषित किया.
  • राष्ट्रीय कांग्रेस ने रजवाड़ों की जनता के संघर्ष का समर्थन किया और राजाओं से अग्रह किया कि वे जनतांत्रिक प्रतिनिधि सरकार स्थापित करें. और जनता को मूलभूत नागरिक अधिकार दें.
  • 1938 में जब कांग्रेस ने अपने स्वाधीनता के लक्ष्य को परिभाषित किया तो इसमें रजवाड़ों की स्वाधीनता को भी शामिल किया.
  • ब्रिटिश भारत तथा रजवाड़ों के राजनीतिक संघर्षों के राष्ट्रीय लक्ष्यों को सामने रखने के लिए जवाहर लाल नेहरु को 1939 में आल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कांफ्रेस का अध्यक्ष चुना गया.
  • इस प्रकार भारत में राष्ट्रीय चेतना को और अधिक बल मिला.

मुस्लिम लीग और सांप्रदायिकता का विकास (Muslim League and Growth of Communalism)

  • 1937 में हुए चुनावों के परिणामों से मुस्लिम लीग और विशेषकर मुहम्मद अली जिन्ना को काफी निराशा हुई.
  • मुस्लिम लीग किसी भी प्रान्त में बहुमत प्राप्त नहीं कर पायी.
  • यहां तक कि मुस्लिम-बहुलता वाले प्रान्त पंजाब और बंगाल में भी इसे बहमत नहीं मिल सका.
  • 1928 से ही मोहम्मद अली जिन्ना ने कांग्रेस के साथ सहयोग करना बन्द कर दिया. और लन्दन आकर 1932 में वकालत शुरू कर दी.
  • 1935 में वापस लौटने के बाद मुख्यतः चुनावी परिणामों को देखते हुए जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग कांग्रेस की घोर विरोधी हो गई.
  • उसने प्रचार शुरू कर दिया कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बहुसंख्यक हिंदुओं में समा जाने का खतरा है.
  • एक ओर कांग्रेस ने मूलगामी कृषि कार्यक्रम अपना लिया था, दूसरी ओर जगह-जगह कृषक आंदोलन शुरू हो रहे थे.
  • इस कारण जमींदार और सूदखोर अपने हितों की रक्षा के लिए साम्प्रदायिक पार्टियों को अपना समर्थन देने लगे.
  • 1940 में मुस्लिम लीग ने एक प्रस्ताव पारित करके मांग की कि स्वाधीनता के बाद देश के दो भाग कर दिए जाएं.
  • हिन्दू महासभा का यह वक्तव्य कि, हिंदू एक अलग राष्ट्र है और भारत हिंदुओं का देश है के कारण भी मुस्लिम लीग की अलग राष्ट्र की मांग अधिक तेजी के साथ उठी.
  • यहां एक उल्लेखनीय बात यह रही कि हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद की बात करने वाले किसी भी सम्प्रदाय या संगठन ने विदेशी शासन विरोधी संघर्ष में कभी भी कोई सक्रिय भाग नहीं लिया.
  • राष्ट्रीय आंदोलन ने सांप्रदायिक ताक़तों का हमेशा दृढ़ता से विरोध किया और धर्म निरपेक्षता से उसकी प्रतिबद्धता हमेशा गहरी और संपूर्ण रही. फिर भी वह सांप्रदायिक चुनौतियों का सामना करने में पूरी तरह सफल न हो सका.
  • अंत में साम्प्रदायिकता देश का विभाजन कराने में सफल रही.
  • 1947 में विभाजन के पहले और बाद में हुए दंगों तथा सांप्रदायिक शक्तियों के पुनरुत्थान के बावजूद स्वतंत्रता के बाद भारत एक धर्म निरपेक्ष संविधान बनाने में तथा मूलरूप से एक धर्म निरपेक्ष राजनीतिक व्यवस्था और समाज खड़ा कर सकने में सफल रहा.

Related Links

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top