जीवन का वर्गीकरण (Classification of Life),जैव विविधता (Biodiversity),आधुनिक वर्गीकरण (Modern Classification

जीवन का वर्गीकरण (Classification of Life),जैव विविधता (Biodiversity),आधुनिक वर्गीकरण (Modern Classification)
  • हम जहाँ भी अपने पर्यावरण को देखते हैं हमें अपने चारों ओर विभिन्न प्रकार के सजीव दिखाई देते हैं. 
  • हम उनकी उपस्थिति का आभास दृश्य, आवाज, घ्राण यहाँ तक कि स्पर्श तथा स्वाद से करते है. 
  • इनमें से कुछ जीव हमें भोजन, ईंधन, आश्रय, तथा कपड़ा देते हैं. 
  • अन्य जीव हमारे साथ, मनोरंजन, सुंदरता तथा प्रसन्नता प्रदान करते है. 
  • कुछ ऐसे जीव भी हैं जो हमें तंग करते हैं, दुःख देते हैं तथा यहां तक कि हमारी मृत्यु का कारण बन जाते हैं. 
  • अतः सजीवों की असंख्य विविधता में से लाभदायक सजीवों को पहचानना तथा हानिकारक से सावधान रहना मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है.
  • एक प्रकार से ऐसी क्रियाएं हमारे जंतु कुटुंब को प्रदर्शित करती है. 
  • जंतुओं में संवेदी अंग तथा पूर्ण विकसित मस्तिष्क होने के कारण वे अपने वातावरण में भोजन देने वाले अथवा भोजन न देने वाले, हानिकारक तथा लाभदायक, परभक्षी तथा शिकार में अंतर करना सीख लेते है. 
  • यह जंतु का एक स्वभाव है जो उसकी उत्तरजीविता के लिए आवश्यक है.

जैव विविधता (Biodiversity)

  • अरिस्टोटल तथा अन्य प्राचीन यूनानियों (300-400 ईसा पूर्व) ने जिन पौधों जंतुओं को वे सजीव के रूप में जानते थे, उन्हें आकृति के आधार पर वर्गीकृत करने का सर्वप्रथम प्रयास किया था. 
  • इन्होंने कुछ हजार प्रकार के सजीवों की पहचान की थी. 
  • चरक को (ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद) आयुर्वेद का जनक माना जाता है. 
  • उन्होंने जंतुओं के 200 से अधिक तथा पौधों के लगभग 340 प्रकारों की एक सूची भारतीय औषधि पर अपनी पुस्तक चरक संहिता में दी है. 
  • 17वीं शताब्दी के अंत में एक अंग्रेजी प्राकृतिक वैज्ञानिक जॉन रे ने सजीवों के एक ही प्रकार के स्पीशीज का नाम दिया था. 
  • उसने यूरोप से एकत्र हजारों पौधों की स्पीशीज की एक सूची बनाई. 18वीं शताब्दी में स्वीडन के एक प्राकृतिक वैज्ञानिक केरोलस लिनियस ने स्पीशीज को दो नामों से पुकारने की (द्विपद नाम-करण) पद्धति विकसित की. उसने अपनी पुस्तक “स्पीशीज प्लांटेश्म” (1753) में पौधों की 5,900 स्पीशीज दी हैं और उसने अपनी एक अन्य पुस्तक “सिस्टमा नेचुरी” (1758) में जंतुओं की 4,200 स्पीशीज दी हैं.
  • वैज्ञानिक जीवों के बहुत से प्रकार उनके वैज्ञानिक नाम से पहचाने जा सकते हैं. 
  • इसका कारण यह है कि इन जीवों का वर्णन तथा समूहीकरण अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण तथा नाम-करण प्रणाली के आधार पर किया गया है. 
  • जीवों के ऐसे वर्गीकरण की प्रणाली को वर्गीकी कहते हैं.
  • जैविक वर्गीकरण की मूलभूत इकाई स्पीशीज (Species) है. 
  • सरल भाषा में स्पीशीज (Species) का अर्थ है एक ही प्रकार का जीव. 200 वर्ष पूर्व ऐसा विश्वास किया जाता था कि स्पीशीज स्थिर तथा अनुत्परिवर्तनीय है. ऐसा सोचा जाता था कि पौधों तथा जंतुओं की वर्तमान स्पीशीज इसी रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुई थी. 
  • स्पीशीज अथवा स्पीशीज वर्ग में समानता होना वर्गीकरण का आधार है. 
  • यह “सृजन-हार की योजना” के कारण है. 
  • स्पीशीज में क्रमश पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवर्तन होते जाते हैं. 
  • कालांतर में इन परिवर्तनों से नई-नई स्पीशीज बन जाती हैं. 
  • विकास से ये पता लगता है कि स्पीशीज, तथा स्पीशीज समूह में क्यों समानता होती है. 
  • इसका कारण है समान पूर्वज से उनकी उत्पत्ति का होना . 
  • जीवाश्म के ऐसे बहुत से प्रमाण है जिससे पता लगता है कि भू-वैज्ञानिक महाकाल में जटिल जीव सरल जीवों के बाद उत्पन्न हुए हैं.
  • सबसे प्राचीन जीवाश्म भी सबसे सरल था. 
  • वे जीवों के सूक्ष्म जीवाश्म थे जो आज के जीवाणुओं तथा प्रकाश संश्लेषणी सायनों बैक्टीरिया (नीले हरे शैवाल) के समान थे. 
  • उनका उदय 3.1 तथा 1 मिलियन वर्ष पूर्व हुआ था. 
  • ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि ये सरल जीव आज के जटिल जीवों के पूर्वज हैं.
  • किसी विशेष वर्ग के जीव के विकास के इतिहास को जाति वृत्तीय (ग्रीक भाषा में फाइला जीनी कबीला, प्रजाति, जेन उत्पन्न करना) कहते हैं. 
  • अतः जीवों की वर्गिकी में जातिवृत्तीय संबंध प्रदर्शित होना चाहिए. 
  • ऐसे वर्गीकरण को विकासीय वर्गीकरण कहते हैं. 
  • यद्यपि विकासीय वर्गीकरण हमेशा संभव नहीं होता है क्योंकि जिनसे ये उत्पन्न हुए हैं, उन जीवों तथा जीवाश्म रिकार्ड के विषय में हमारा वर्तमान ज्ञान अधूरा है. 
  • जब नए-नए प्रमाण प्राप्त होते हैं. 
  • तब वर्तमान वर्गीकरण में वर्गिकीय परिवर्तन कर दिए जाते हैं. 

आधुनिक वर्गीकरण (Modern Classification) 

  • नामकरण के आधुनिक वैज्ञानिक वर्गीकरण में कई अवस्थाएँ या सीढ़ियाँ होती हैं. 
  • इसके अनुसार जन्तु या वनस्पति के जगत (Kingdom) को पहले उप जगत (Sub-kingdom) में बाँटा गया है. 
  • एक उप जगत को कई संघों (Phylums) में, एक संघ को कई वर्गों (Classes) में, एक वर्ग को कई गणों (Orders) में और एक गण को कई कुलों (Families) में बाँटा गया है. 
  • पुनः एक कुल को वंश (Genus) में एवं एक वंश को जातियों (Species) में बाँटा गया है. 
  • जाति ही वर्गीकरण की अंतिम इकाई है किंतु आवश्यकता पड़ने पर एक जाति को उप-जातियों (Sub-species) में विभाजित किया जा सकता है, उदाहरण के लिए एक भारतीय मेढ़क तथा मानव का वर्गीकरण निम्न प्रकार से है —

मेढ़क का वर्गीकरण

  • मेढ़क (Zoological Name: Rana tigrina) 
  • जगत (Kingdom) : ऐनिमेलिया (Animalia) 
  • संघ (Phylum) : कार्डेटा (Chordata) 
  • उप संघ (Subphylum) : वर्टिब्रेटा (Vertebrata) 
  • वर्ग (Class) : एम्फीबीया (Amphibia) 
  • गण (Order) : एन्युरा (Anura) 
  • कुल (Family) : रेनिडी (Ranaidae) 
  • वंश (Genus) : राणा (Rana) 
  • जाति (Species) : टिग्रीना (tigruna) 

मानव का वर्गीकरण

  • मानव (Zoological Name : Homo sapiens) 
  • जगत (Kingdom) : ऐनिमेलिया (Animalia) 
  • संघ (Phylum) : कार्डेटा (Cordeta) 
  • उप संघ (Subphylum) : वर्टिब्रेटा (Vertebrata) 
  • वर्ग (Class) : मामालिया (Mammalia) 
  • गण (Order) : प्राईमेट (Primate) 
  • कुल (Family) : होमीनाईड (Hominidae) 
  • वंश (Genus) : होमो (Homo) 
  • जाति (Species) : सैपियन (sapiens)

पाँच किंगडम (The Five Kingdoms)

  • सन् 1969 में दो किंगडम वाले वर्गीकरण के स्थान पर जीवों के वर्गीकरण की एक नई पांच किंगडम प्रणाली विटकर ने सुझाई थी. 
  • इस प्रणाली में पाँच किंगडम निम्नलिखित तीन सिद्धांतों पर बनाए गए हैं: कोशिका रचना की जटिलता, जीव के शरीर की जटिलता, तथा अंततः पोषण की विधि. 
  • पाँच किंगडम हैं-
  1. मोनेरा, 
  2. प्रोटिस्टा, 
  3. प्लांटा (पौधे), 
  4. कवक तथा 
  5. ऐनिमेलिया (जंतु). 
  • पाँच किंगडम प्रणाली में पुराने दो किंगडम वर्गीकरण के उपविभाजनों को नहीं बदला गया है. 
  • बल्कि उनका अतिरिक्त किंगडमों में पुनः विभाजन कर दिया गया है. 
  • ऐसी प्रणाली विभिन्न जीवनों के स्टाइल की जातिवृत्तीय भली भाँति प्रदर्शित करती है.

(1) मोनेरा (Monera)- प्रोकैरिऑट का किंगडम

  • मोनेरा (मोनास = अकेला) में सभी प्रोकैरिऑटी जीव-जैसे जीवाणु, एक्टीनोमाइसिटीज (तंतुमयी जीवाणु) तथा प्रकाश संश्लेषी सायनोबैक्टीरिया आते हैं.
  • मोनेरा की कोशिकाएँ सूक्ष्म (1 से लेकर कुछ माइक्रॉन लंबी) होती है और उनमें केंद्रक अथवा अन्य झिल्लीयुक्त अंगक उपस्थित नहीं होते . 
  • अधिकांश मोनेरी कोशिका की भित्ति कठोर होती है. 
  • मोनेरा में पोषण विभिन्न-प्रकार से होता है. 
  • बहुत से मोनेरा कार्बनिक पदार्थों को अपघटित करते हैं और फिर तरलरूप में उसे अवशोषित कर लेते हैं. 
  • अब उनकी-भित्ति से कणकीय कार्बनिक पदार्थों का अंतग्रहण नहीं हो सकता. 
  • इनमें से कुछ विषमपोषी होते हैं, तथा अन्य स्वपोषी. 
  • जो स्वपोषी, प्रकाश ऊर्जा (प्रकाश स्वपोशी) अथवा रसायनिक क्रिया द्वारा निकली ऊर्जा (रसायन स्वपोषी) का उपयोग करके कार्बन डाई ऑक्साइड को अपचयित कर देते हैं और अपना भोजन बनाते हैं. 
  • कुछ मोनेरा जीव वायुमंडल की नाइट्रोजन को अमोनिया में स्थिर करके मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं.
  • कुछ मोनेरा उच्चवर्गीय जीवों के साथ सहजीवी जीवन व्यतीत करते हैं और कुछ मोनेरा परजीवी होते हैं.
  • कुछ मोनेरा बहुत विषम परिस्थितियों जैसे ऑक्सीजन की अनुपस्थिति, नमक की उच्च सांद्रता अथवा उच्च तापक्रम (80°C) अथवा अम्लीय पी. एच. में भी रह सकते हैं इन्हें आरकी बैक्टीरिया (प्राचीन जीवाणु) कहते हैं, क्यों कि वे संभवतः, जीवन के प्रारंभिक प्रकार हैं. 
  • वे ऐसी परिस्थितियों में रहते हैं जैसी परिस्थिति प्राचीन पृथ्वी पर थी.

(2) प्रोटिस्टा (Protista)- एक कोशिकीय यूकैरिऑट का किंगडम

  • प्रोटिस्टा किंगडम में अधिकतर एक कोशिकीय तथा मुख्यतः जलीय यूकैरिऑट के विभिन्न प्रकार आते हैं. 
  • इनमें विशिष्ट यूकैरिऑटी कोशिकांग जैसे- केन्द्रक, माइटोकाँड्रिया, एंडोप्लाज्मिक जालिका, गाल्जीकाय तथा प्लैस्टिड (यदि प्रकाश संश्लेषी हैं) होते हैं जिनमें 9 + 2 भीतरी सूक्ष्म नलिकाकार संरचनाएं होती हैं. 
  • प्रोटिस्टा में जीवन विधि विविध प्रकार की होती है. 
  • उनमें से बहुत से प्रकाश संश्लेषी स्वपोशी होते हैं और वे समुद्र तथा बहुत से अलवण जलीय पर्यावरण में मुख्य उत्पादक हैं. 
  • इस वर्ग में बहुत से रंगीन एक कोशिकीय शैवाल तथा डायटम आते हैं. 
  • उन्हें पादप प्लवक अथवा सूक्ष्मदर्शी, तैरते हुए प्रकाश संश्लेषी जीव कहते हैं. 
  • अधिकांश पादप प्लवकों में कोशिका भित्ति होती है तथा बहुतों में फ्लेजिला होते हैं. 
  • कुछ प्रोटिस्टा परभक्षी भी होते हैं जो भोजन के लिए दूसरे प्रोटिस्टों पर निर्भर रहते हैं. वे प्रोटोजोआ (प्रथम जंतु) हैं. 
  • प्रोटोजोआ में कोशिका भित्ति न होने के कारण कणीय भोजन का अंतर्ग्रहण होता है. 
  • इस प्रक्रिया को प्राणीसम पोषण कहते हैं. 
  • कुछ प्रोटोजोआ अन्य जंतुओं के शरीर में परजीवी जीवन व्यतीत करते हैं. 
  • अन्य प्रोटोजोआ लगभग सभी प्रकार के जंतुओं की आहार नाल में रहते हैं. 
  • कुछ प्रोटोजोआ पौधे की कोशिका भित्ति में स्थित अपचय सैल्यूलोज जैसे कार्बनिक पदार्थों के अपघटन में सहायता करते हैं. 
  • यह प्रक्रिया कुछ उसी प्रकार होती है जैसे दीपक तथा लकड़ी खाने वाले तिलचट्टे पौधों में स्थित सैल्यूलोज पर करते हैं.

(3) प्लांटी (Plantae)- बहुकोशिकीय उत्पादकों का किंगडम- 

  • प्लांटी किंगडम में वे सभी रंगदार, बहुकोशिकीय प्रकाश संश्लेषी पौधे आते हैं. 
  • जिन्हें आप स्थल पर, समुद्री तटों पर, झीलों तथा नदियों में देखते है. 
  • इसके मुख्य वर्ग हैं समुद्री घास. इस घास में जटिल लाल, भूरे तथा हरे शैवाल, मॉस, फर्न, कुछ फूलवाले तथा फलविहीन बीज वाले पौधे आते हैं.
  • पादप कोशिकाओं में सैल्यूलोज की सख्त कोशिका भित्ति होती है जिसके कारण वे जंतु कोशिका की भाँति सिकुड़ फैल नहीं सकती. 
  • इसलिए पौधे अचल होते हैं और उनमें कोई गति नहीं होती. 
  • लेकिन बहुत से एक कोशिकीय प्रोटिस्टों अथवा जंतुओं में गति होती है. 
  • वे स्थल तथा समुद्री तटों पर मुख्य उत्पादक हैं. 
  • वे कम गहरी झीलों तथा तालाबों में प्रभावी वनस्पति हो सकते हैं.
  • पौधे अपना सारा कार्बनिक पदार्थ जल, कार्बन डाइऑक्साइड तथा अकार्बनिक तत्वों से सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करके बनाते हैं . 
  • क्लोरोफिल तथा सहायक वर्णक सूर्य की ऊर्जा को अवशोषित करते हैं.
  • कुछ पुष्पी पादप पूर्णरूप से विषमपोषी होते हैं. ये पौधे अन्य पौधों पर आंशिक परजीवी अथवा पूर्ण परजीवी होते हैं. 
  • अन्य पौधों में कीटों जैसे छोटे-छोटे जंतुओं को पकड़ने तथा बाह्य कोशिकीय पाचन विधि करने तथा उनके नाइट्रोजनी पदार्थ को अवशोषित करने के साधन विकसित हो गए हैं. 
  • ऐसे पौधों को कीटभक्षी पौधे कहते हैं. 
  • अन्य कुछ ऐसे पौधे भी होते हैं. जो नाइट्रोजन अथवा खनिज को प्राप्त करने के लिए नाइट्रोजन स्थिर करने वाले जीवाणुओं अथवा कवकों के साथ सहजीवी संबंध बनाते हैं.

(4) कवक (Fungi)- बहुकोशिकीय अपघटकों का किंगडम- 

  • कवक किंगडम में विभिन्न प्रकार के यूकैरिऑटी विशेषतः बहुकोशिकीय विषमपोषी जीव आते हैं. 
  • उनमें एक सामान्य प्रकार का पोषण होता है, जैसे कार्बनिक पदार्थों का अवशोषण जो गलने सड़ने से घुलनशील बन गया था. 
  • जब कवक गले-सड़े पौधों अथवा जंतुओं के पदार्थों पर रहते हैं तब उन्हें मृतजीवी कहते हैं, और जब वे सजीव पौधों तथा जंतुओं के ऊतकों का स्वांगीकरण करते हैं . तब उन्हें परजीवी कहते हैं . 
  • कवक अपनी कोशिका-भित्ति के जरिए पाचक एंजाइमों को आस-पास के पर्यावरण में छोड़ते हैं जिससे कि सारा जटिल कार्बनिक पदार्थ घोल के रूप में परिवर्तित हो जाता है. 
  • इस पदार्थ को कवक अवशोषित कर लेते हैं.
  • सजीव वृक्षों तथा लकड़ी के गट्ठों पर दिखाई देने वाले कवकों जैसे बहुत से मोल्ड, मशरूम, पफबोल तथा ब्रेक्ट कवक के भाग वास्तव में जनन संरचनाएं होती हैं. 
  • ये तंतुमयी कायिक अथवा कवक की स्वांगीकरणीय काम से बनती हैं जो लकड़ी के ऊतकों के बीच उगती हैं . 
  • कवक के परजीवी प्रकार मेजबान पौधों में मिल्डयू, रतवा, कंडवा, नर्म अथवा शुष्क विगलन, मुरझाना तथा पत्तों के धब्बे जैसे रोग उत्पन्न करते हैं.
  • यीस्ट एक विशिष्ट कवक वर्ग है जो किण्वन प्रक्रियाएँ करता है. ये एक कोशिकीय जीव होते हैं. 
  • यद्यपि कोशिकीय होने के कारण ये प्रोटिस्टों के समान हैं लेकिन उनमें लैंगिक जनन विधि बहुकोशीय कवकों की तरह होता है.

(5) ऐनिमोलिया (Animalia)- बहुकोशिकीय उपभोक्ताओं का किंगडम-

  • इस किंगडम के सदस्य बहुकोशिकीय, सर्वभक्षी यूकैरिऑट होते हैं. 
  • इन्हें मेटाजोआ भी कहते हैं वे भोजन को अंतर्ग्रहण करते हैं. 
  • इसमें चलायमान इसलिए संभव हो सका है क्योंकि इनमें ऐसी कोशिकाएं होती हैं (पेशी कोशिकाएं) जो सिकुड़ सकती है अथवा संवेदों को (तंत्रिका कोशिका) ले जा सकती है. 
  • इसका अपवाद एक आदिम मैटाजोआ है जिसे स्पांज कहते हैं. इनमें तंत्रिका कोशिकाएँ नहीं होती हैं . 
  • जंतुओं के कुछ वर्ग परजीवी बन गए हैं. ये अन्य मेटाजोऑन अथवा पौधों के ऊपर या उनके ऊतकों के भीतर रहते हैं. 
  • कुछ जंतु प्रकाश संश्लेषी प्रोटिस्टों के साथ सहजीवी संबंध बना लेते हैं.
  • प्राणी जगत में सबसे अधिक विविधता होती है. 
  • दस लाख से भी अधिक स्पीशीज का नाम-करण हो चुका है. 
  • यह विविध प्रकार हैं-स्पंज,नीडिरियन (हाइड्रा तथा जैली-फिश), चपटे, गोल अथवा खंडीय कृमि, घोंघे तथा अन्य मोलस्क, ओथ्रोपोड (संघित-पाद जंतु) जैसे—कीट, बिच्छू तथा मकड़ी, स्टार फिश तथा कशेरूकी जैसे मछली, उभचर, सरीसृप, पक्षी तथा स्तनधारी).

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