कम्पनी और भारतीय रियासतें (THE COMPANY AND THE INDIAN STATES) आधुनिक भारत (MODERN INDIA)
कम्पनी और भारतीय रियासतें (THE COMPANY AND THE INDIAN STATES)
- भारतीय रियासतों और ईस्ट इंडिया कम्पनी के मध्य संबंधों के कई चरण देखने को मिलते हैं.
- इन भारतीय रियासतों की संख्या 562 थी और इनके अधीन लगभग 7,12,508 वर्ग मील का क्षेत्र था.
कम्पनी का साम्राज्य के लिए संघर्ष (The Company’s Struggle for Empire)
- 1740 से पूर्व कम्पनी एक व्यापारिक कम्पनी थी.
- 1740 में फ्रांसीसी गवर्नर जनरल डूप्ले ने भारतीय रियासतों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करके भारत में राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने का प्रयल किया.
- फ्रांसीसी से प्रेरणा लेकर कम्पनी ने भी भारत में अपना राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने के लिए प्रयल आरंभ कर दिए.
- इस प्रकार का पहला प्रयत्न 1751 में अरकाट का घेरा डालना था.
- 1757 और 1764 में क्रमशः प्लासी और बक्सर के युद्ध के बाद कम्पनी ने बंगाल में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया.
- 1765 में मुगल सम्राट शाह आलम ने कम्पनी के निरन्तर बढ़ते हुए प्रभाव को देखते हुए बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी उसे दे दी.
मध्य राज्य की नीति, 1765-1813 (The Policy of Buffer State, 1765-1813)
- कम्पनी ने अपने निरन्तर बढ़ते साम्राज्य की रक्षा के लिए अपने राज्य के चारों ओर मध्य राज्य स्थापित करने की नीति का अनुसरण किया.
- वारेन हेस्टिज की यह स्पष्ट नीति थी कि अपने पड़ोसी राज्यों की सीमाओं की रक्षा करो ताकि अपनी सीमाएं सुरक्षित रहे.
- अत: अफगानों और मराठों से अपनी रक्षा के लिए कम्पनी ने अवध की रक्षा का भार अपने ऊपर इस शर्त के तहत लिया कि अवध का नवाब इस रक्षा के व्यय का बोझ उठाए.
- इस प्रकार कम्पनी ने अवध की रक्षा से अपने बंगाल को सुरक्षित किया.
- लार्ड वेल्जली ने भारतीय रियासतों को अपनी रक्षार्थ कम्पनी पर निर्भर करने के लिए बाध्य किया.
- उसने फ्रांसीसीयों से भारतीय प्रदेशों को बचाने के लिए सहायक संधि की प्रणाली आरंभ की.
- सहायक संधि की प्रणाली के द्वारा उसने हैदराबाद, मैसूर, तंजौर, अवध, पेशवा, बराड़ भोसले, सिंधिया, जोधपुर, जयपुर, मच्छेड़ी, बूंदी और भरतपुर आदि रियासतों और मराठा सरदारों को अपनी सुरक्षा के लिए कम्पनी पर आश्रित कर दिया.
अधीनस्थ अलगाव की नीति, 1813-57 (The Policy of Subordinate Isolation, 183-57)
- लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने भारत में ब्रिटिश सर्वश्रेष्ठता के सिद्धान्त का विकास किया.
- उसने भारतीय रियासतों को अपने विदेशी संबंधों के लिए कम्पनी की मध्यस्थता स्वीकार करने पर बाध्य किया.
- यद्यपि आन्तरिक मामलों में ये रियासतें स्वतंत्र थी परन्तु इन रियासतों में ब्रिटिश रेजिडेन्टों की नियुक्ति की गई.
- प्रारंभ में रेजिडेन्ट कम्पनी और रियासत के मध्य सम्पर्क का कार्य करते थे किन्तु आगे चलकर उन रेजिडेन्ट ने इन रियासतों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करना प्रारंभ कर दिया.
- 1833 के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी का व्यापारिक स्वरूप समाप्त कर उसे राजनीतिक स्वरूप प्रदान किया गया.
- इस नवीन स्वरूप के अनुसार साम्राज्यवादी गवर्नर जनरलों ने कुप्रशासन और वास्तविक उत्तराधिकारी की आड़ में भारतीय रियासतों पर कब्जा करना प्रारंभ कर दिया.
अधीनस्थ संघ की नीति, 1858-1935 (The Policy of Subordinate Union, 1858-1935)
- 1858 में ब्रिटिश सम्राट द्वारा सीधे भारत के शासन का उत्तरदायित्व संभाल लेने के बाद भारत सरकार और इन रियासतों के मध्य संबंधों में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया.
- सम्राट ने विलय की नीति और व्यपगत के सिंद्धात को त्यागते हुए यह स्पष्ट किया कि वह अपने प्रदेश का विस्तार नहीं करना चाहता.
- यह नवीन नीति स्पष्ट रूप से उस राजभक्ति का परिणाम थी जो इन रियासतों के राजाओं ने 1857 के विद्रोह के समय प्रदर्शित की थी.
- इस नवीन नीति के अनुसार शासक को कुशासन के लिए दण्डित किया जाता था या आवश्यकतानुसार गद्दी से उतार दिया जाता था; किन्तु उसके राज्य का विलय नहीं किया जाता था.
- इस प्रकार यह भी स्पष्ट कर दिया गया था कि गद्दी पर शासक का पैतृक अधिकार नहीं है.
- भारतीय राजा को राज्य का प्रभुत्व नहीं वरन् उसका प्रशासन चलाने का कार्य सौंपा जाता था.
- इसके अलावा उसका शासक बना रहना इस बात पर निर्भर था कि वह ब्रिटिश सम्राट के प्रति अपनी राजभक्ति प्रकट करे.
- भारत सरकार को इन रियासतों की ओर से युद्ध की घोषणा, तटस्थता और शांति सौध करने का पूर्ण अधिकार था.
राजाओं की परिषद् (The Chamber of Princes)
- 1905 से इन रियासतों के प्रति भारत सरकार की नीति बहुत सौहार्दपूर्ण एवं सहकारिता की रही.
- वास्तव में भारत में बढ़ती हुई राजनीतिक व्यग्रता के कारण भारत सरकार के लिए यह स्वाभाविक था कि वह अपने हितों और विशेषाधिकारों की सुरक्षा के लिए भारतीय रियासतों के साथ मिलकर एक संयुक्त मोर्चा बनाए.
- 1876 में लॉर्ड लिटन ने यह सुझाव दिया था कि भारतीय राजाओं की एक अन्तः परिषद् गठित की जाए ताकि ये लोग वायसराय के साथ सामूहिक हितों के मामलों पर विचार-विमर्श कर सके.
- किन्तु इंग्लैण्ड में यह सुझाव स्वीकृत न हो सका.
- आगे चलकर चेम्सफोर्ड सुधारों में लिटन के उक्त सुझाव को मान्यता दी गई.
- लॉर्ड लिटन के सुझावों का क्रियान्वयन “नरेश मंडल” (Chamber of Princes) के गठन के रूप में किया गया.
- फरवरी, 1921 में नरेश मंडल का विधिवत् उद्घाटन किया गया.
- नरेश मंडल में प्रतिनिधित्व के लिए रियासतों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में बांटा गया
- पूर्ण वैधानिक क्षेत्राधिकार रखने वाली 100 रियासतों को मण्डल में सीधा प्रतिनिधित्व दिया गया.
- सीमित वैधानिक क्षेत्राधिकार रखने वाली 127 रियासतों के द्वारा चुने हुए 12 प्रतिनिधियों को मण्डल में प्रतिनिधित्व दिया गया.
- शेष 826 रियासतों को जागीरों अथवा सामन्तशाही जागीरों के मालिकों की श्रेणी में रखा गया.
- यह नरेश मण्डल मात्र एक सलाहकारी और परामर्शदायी संस्था थी.
- इसका किसी रियासत के आन्तरिक मामलों से कोई संबंध नहीं था.
बराबर के संघ की नीति, 1935 -47 (The Policy of Equal Federation, 1935-47)
- भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध बढ़ते हुए जन आक्रोश को दबाने के लिए अंग्रेजों ने भारतीय रियासतों के साथ मिलकर एक संघ के निर्माण की योजना बनायी.
- किन्तु यह संघ केवल तभी अस्तित्व में आ सकता था जब कम से कम आधी जनसंख्या और ये सारी रियासतें संघ में सम्मिलित हो जाती.
- 1935 के भारतीय शासन अधिनियम के अनुसार प्रस्तावित समस्त भारत के संघ की संघीय विधानसभा में देसी रियासतों को 325 में से 125 स्थान दिए गए.
- राज्य परिषद् के 260 में से 104 स्थान इन रियासतों को प्रदान किए गए.
- किन्तु आवश्यक मात्रा में रियासतों ने संघ में सम्मिलित होना स्वीकार नहीं किया.
- अतएव प्रस्तावित संघ अस्तित्व में नहीं आ सका.
- 1937 के चुनावों में कांग्रेस ने उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की.
- इस सफलता का प्रभाव इन रियासतों पर भी पड़ा.
- यहां भी उत्तरदायी सरकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए आन्दोलन होने लगे.
रियासतों का एकीकरण और विलय (Integration and Merger of States)
- भारतीय रियासतों के भविष्य के संबंध में नीति निर्धारित करना एक कठिन कार्य था.
- क्रिप्स प्रस्ताव (1942), वेवल योजना (1945), कैबिनेट मिशन (1946), और 20 फरवरी, 1947 की ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली की घोषणा आदि सभी में इन रियासतों के भविष्य पर विचार किया गया था.
- 20 फरवरी को एटली की घोषणा और 3 जून की लॉर्ड माउण्टबेटन की योजना द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया कि इन रियासतों को यह अधिकार होगा कि वे भारत या पाकिस्तान किसी में भी सम्मिलित हो जाएं.
- लॉर्ड माउण्टबेटन ने किसी एक रियासत या अनेक रियासतों के संघ को भारत या पाकिस्तान से पृथक एक तीसरी इकाई के रूप में मान्यता देने से इन्कार कर दिया.
- राष्ट्रीय स्तर पर गठित अंतरिम सरकार में सरदार वल्लभभाई पटेल को रियासती विभाग का मंत्री बनाया गया.
- सरदार वल्लभभाई पटेल ने इन भारतीय रियासतों की देश भक्ति को ललकारा और इनसे अनुरोध किया कि वे भारतीय संघ में सम्मिलित हो जाएं.
- उनके कठिन परिश्रम से ये रियासतें भारतीय संघ में सम्मिलित हो गई.
रियासतों का पुनर्गठन (Reorganisation of States)
- स्वतंत्रता संग्राम के समय कांग्रेस की एक प्रमुख मांग यह थी कि भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया जाए.
- स्वतंत्रता के बाद भाषा के आधार पर राज्य पुनर्गठन की मांग ने उग्र रूप धारण कर लिया.
- 1954 में भारत सरकार ने न्यायमूर्ति फजल अली की अध्यक्षता में राज्य पुनर्गठन आयोग की नियुक्ति की. आयोग की सिफारिशों के मद्देनजर भारतीय संसद ने 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पारित किया.
- इसके अनुसार 14 राज्य और 6 केन्द्र-शासित प्रदेश बनाए गये.
- इसके बाद भी समय-समय पर राज्यों एवं संघ-राज्य-क्षेत्रों के स्वरूप में परिवर्तन होता रहा.
- वर्तमान में भारत में 29 राज्य और 7 केन्द्र शासित प्रदेश हैं.