प्रथम विश्व युद्ध और भारतीय राष्ट्रवाद (First world war in Hindi & Nationalism)

प्रथम विश्व युद्ध और भारतीय राष्ट्रवाद (First world war in Hindi and Indian Nationalism)

प्रथम विश्व युद्ध और भारतीय राष्ट्रवाद (first world war in Hindi and Indian Nationalism)-प्रथम विश्व युद्ध जुलाई, 1914 में शुरू हुआ था. इसमें एक तरफ ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और जापान तथा दूसरी तरफ इटली, जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी और टर्की थे. भारत में युद्ध के वर्ष राष्ट्रवाद के तेजी के साथ विकास के संकेतक थे. 

जब युद्ध प्रारम्भ हुआ था उस समय कांग्रेस पूरी तरह से गोपाल कृष्ण गोखले अर्थात् उदारवादियों के नेतृत्व में थी. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सहित लगभग सभी दलों ने सरकार को इस युद्ध में इस आश्वासन पर सहयोग देना स्वीकार किया कि युद्ध की समाप्ति पर भारतीयों की मांगों पर पूरा ध्यान दिया जाएगा.

इस समय कांग्रेस और मुस्लिम लीग एक दूसरे के थोड़ा करीब आये. क्योंकि कुछ कारणों जैसे- मुस्लिम राष्ट्र टर्की का रूस व इंग्लेण्ड द्वारा विरोध, बंगाल विभाजन के समय मुसलमानों की राय न लेना तथा कुछ मुसलमान नवयुवकों के हृदय में राष्ट्रीय भावना जागृत होने आदि से मुसलमान भी अंग्रेजों से रुष्ट हो गए.

बाद में जब जिन्ना लीग के सभापति बने तो तय हुआ कि लीग व कांग्रेस अब मिल कर साथ-साथ काम करेंगे.

होमरुल लीग आन्दोलन (The Home Rule Movement)

जब इंग्लेण्ड प्रथम विश्व युद्ध (First world war in Hindi) में व्यस्त था उसी समय भारतीय नेता और श्रीमति एनी बेसन्ट ने देश में राष्ट्रीय आंदोलन को नया जीवन प्रदान करने का निर्णय लिया.

अत: 23 अप्रैल, 1916 को बाल गंगाधर तिलक ने पूना में “होमरुल लीग‘ की स्थापना की. इसके छः महीने बाद श्रीमती एनीबेसेन्ट ने भी मद्रास में ‘अखिल भारतीय होमरुल लीग’ की स्थापना की. इन दोनों लोगों का उद्देश्य एक ही था. अत: दोनों ने परस्पर सहयोग से काम किया.

दिसम्बर, 1919 में कांग्रेस तथा लीग ने सुधारों की एक सामान्य योजना स्वीकार की तथा उसे जन-सामान्य में लोकप्रिय बनाने के लिए स्वराज्य आन्दोलन का उपयोग करने का निश्चय किया.

और एनीबेसेन्ट ने देश भर में भ्रमण कर आंदोलन को गतिशील बनाया. इससे देश भर में स्वशासन का घर-घर प्रचार होने लगा. इस आंदोलन में अपनी मांगों को प्रार्थना या याचना के बजाय अधिकार पूर्वक प्रस्तुत किया जाता था. इसके प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार थे–

लीग का मुख्य उद्देश्य यह था कि स्थानीय संस्थाओं और विधान सभाओं में जनता द्वारा निर्वाचित होने वाले प्रतिनिधियों का स्वशासन स्थापित करना, ताकि भारत में भी औपनिवेशिक राज्यों की तरह ही शासन स्थापित हो सके.

इस सन्दर्भ में कहा गया कि स्वशासित भारत अंग्रेजों के लिए युद्ध में अधिक सहायक सिद्ध होगा. एक और उद्देश्य इसका यह था कि भारतीय राजनीति को उग्रता की ओर जाने से रोकना तथा युद्धकाल में सुस्त पड़ गई भारतीय जनता में राजनीतिक चेतना को पुनः जागृत करना.

धीरे-धीरे यह गृह-स्वशासन आंदोलन तेजी पकड़ता गया. श्रीमति एनीबेसेन्ट ने दैनिक पत्र ‘न्यू इण्डिया’ एवं साप्ताहिक पत्र ‘कामन विल’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया. इन पत्रों के द्वारा एनी बेसेन्ट ने भारतीयों में स्वतंत्रता एवं राजनीतिक भावना को जागृत किया. तिलक ने अपने पत्र ‘मराठा’ एवं ‘केसरी’ के माध्यम से गृहशासन का जबरदस्त प्रचार किया.

आंदोलन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सरकार ने इसे कुचलने का फैसला किया. तिलक और एनीबेसेन्ट के कार्यालय पर कड़े प्रतिबन्ध लगा दिए गये . एनीबेसेन्ट को उसके दो साथियों के साथ 1917 में नजरबन्द कर दिया गया तथा तिलक के पंजाब और दिल्ली प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया.

सरकार के इन कार्यों का देशभर में प्रतिकूल प्रभाव पड़ा तथा लोगों में विरोध और रोष का तूफान उठ खड़ा हुआ. प्रतिकूल विचारों वाले राष्ट्रवादी अब एकजुट हो गये. देश भर में जबरदस्त विरोध को देखते हुए भारत सचिव माटेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को ब्रिटिश संसद में इस आशय का प्रस्ताव पारित किया, जिसमें भारत को उत्तरदायी शासन प्रदान करने का आश्वासन दिया गया था.

उदारवादियों ने इस आश्वासन को अपनी जीत समझा तथा भारत मंत्री के देश में आने पर उनके साथ सहयोग करने का निर्णय लिया. धीरे-धीरे यह आंदोलन शान्त हो गया.

कांग्रेस का लखनऊ अधिवेशन, 1916 (The Lucknow Session of Congress, 1916)

उदारवादी दल के दो प्रमुख नेताओं फिरोजशाह मेहता और गोपालकृष्ण गोखले की 1915 में मृत्यु हो गई थी. इसके बाद गरम दल और नरम दल को कांग्रेस के मंच पर एक साथ लाने का प्रयास तिलक एवं एनीबेसेन्ट ने किया और इनका प्रयास सफल रहा.

1916 के कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता अम्बिका चरण मजूमदार ने की. 1916 के लखनऊ अधिवेशन में ही कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एक समझौता हुआ, जिसके अन्तर्गत कांग्रेस एवं लीग ने मिलकर एक ‘संयुक्त समिति’ की स्थापना की.

इस समय भारतीय मुसलमान अनेक कारणों से ब्रिटिश सरकार से रुष्ट थे. अतः उपरोक्त समझौते द्वारा एकता पर बल दिया गया और दोनों ने मिलकर स्वराज्य प्राप्ति की योजना तैयार की.

इस समझौते में कांग्रेस की भयंकर भूल यह थी कि उसने लीग की साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की मांग को स्वीकार कर लिया. जिसके परिणाम कालान्तर में देश-विभाजन के रूप में सामने आये.

‘कांग्रेस-लीग’ अथवा ‘लखनऊ समझौते’ में निम्नलिखित सुधार सम्बन्धी प्रस्ताव थे

  1. प्रान्तों को प्रशासनिक और वित्तीय क्षेत्र में केन्द्रीय नियंत्रण से अधिकाधिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए.
  2. केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान सभाओं में निर्वाचित और मनोनीत सदस्यों का प्रतिशत क्रमश: 80 और 20 होना चाहिए.
  3. केन्द्रीय विधान सभा की सदस्य संख्या कम से कम 150, मुख्य प्रान्तों की विधान सभाओं की सदस्य संख्या कम से कम 115 और अन्य प्रान्तों की विधान सभाओं की सदस्य संख्या 50 से 75 तक होनी चाहिए.
  4. जब तक कौंसिल द्वारा पारित प्रस्तावों पर गवर्नर जनरल अथवा सपरिषद् गवर्नर अपने निषेधाधिकार का प्रयोग न करें, तब तक प्रान्तीय और केन्द्रीय सरकारों को उनके अनुकूल ही आचरण करना चाहिए.
  5. केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा को भारत सरकार के सैनिक, विदेशी और राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप का, जिनमें युद्ध-घोषणा अथवा सन्धि करना भी सम्मिलित हैं, कोई अधिकार नहीं होना चाहिए.
  6. भारत मंत्री के भारत सरकार के साथ वे ही सम्बन्ध होने चाहिए जो औपनिवेशिक मन्त्री के डोमीनियनों की सरकारों के साथ होते हैं.
  7. अल्पसंख्यकों को किसी विधेयक के निषेध (Veto) का अधिकार दिया जाना चाहिए. यदि उनके तीन-चौथाई प्रतिनिधि किसी विधेयक के विरुद्ध हों तो उस पर विधान सभा में विचार नहीं किया जाना चाहिए.

लखनऊ समझौते को यद्यपि तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में अत्यधिक सफल बताया गया, परन्तु वास्तव में यह समझौता मुलसमानों के अन्दर पृथक राष्ट्रीयता की भावना के जन्म और विकास का मूल कारण रहा. इसमें मुसलमानों को उनकी आबादी से कहीं अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया था. धीरे-धीरे मुस्लिम साम्प्रदायिक भावना उग्र होती गई. परिणामस्वरूप देश विभाजन की ओर अग्रसर होता चला गया.

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top