क्रान्तिकारी आंदोलन (The Revolutionary Movement)

क्रान्तिकारी आंदोलन (The Revolutionary Movement)

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन-क्रान्तिकारी आंदोलन (The Revolutionary Movement)

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन-क्रान्तिकारी आंदोलन (The Revolutionary Movement)क्रान्तिकारी आतंकवादी आंदोलन उन्नीसवीं सदी के अन्त में और बीसवीं सदी के आरम्भ में चला था. यह उग्रराष्ट्रवाद की ही एक अवस्था थी. परन्तु ये लोग तिलक-पक्षीय राजनीतिक उग्रवाद से बिल्कुल भिन्न साधनों का प्रयोग करने पर विश्वास रखते थे.

क्रान्तिकारी लोग अपीलों, प्रेरणाओं और शान्तिपूर्ण संघर्षों को नहीं मानते थे. ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रियावादी और दमन की नीति ने उन्हें निराश कर दिया था. क्रान्तिकारी प्रशासन और उनके हिन्दुस्तानी सहायकों की हिम्मत पस्त करने के लिए हिंसात्मक कार्यों में विश्वास रखते थे तथा शीघ्र परिणाम चाहते थे.

उनका विश्वास था कि पाश्चात्य साम्राज्य केवल पश्चिमी हिंसक साधनों से ही समाप्त किया जा सकता है. इसीलिए इन लोगों ने बम तथा पिस्तौल का प्रयोग किया और डकैतियां डाली व खजाने लूटे.

इन क्रान्तिकारी युवकों ने आयरिश आंतकवादियों और रूसी नेशनलिस्टों के संघर्ष के तरीकों को अपनाकर यूरोपीय प्रशासकों की हत्या करके तथा अन्य आतंकवादी साधनों का प्रयोग कर स्वतंत्रता विरोधीयों को उखाड़ फेंकने का प्रयल किया.

महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी आंदोलन (Revolutionary Movement in Maharashtra)

क्रान्तिकारी राष्ट्रवादियों का सबसे पहला केन्द्र महाराष्ट्र था. पूना जिले के चितपावन ब्राह्मणों में सर्वप्रथम स्वराज्य के प्रति प्रेम की उग्र भावना का विकास हुआ था. बाल गंगाधर तिलक ने जो कि स्वयं चितपावन ब्राह्मण थे, 1893 में गणपति त्यौहार तथा 1895 में शिवाजी त्यौहार मनाया. इससे महाराष्ट्र के लोगों में राष्ट्रवादी भावनाओं का काफी विकास हुआ. 

सर्वप्रथम 22 जून, 1899 को पूना में पूना प्लेग कमिश्नर मि. रैण्ड तथा उनके एक साथी लेफ्टिनेन्ट अयर्स्ट (Lieutenant or Lt. Ayerst) की चापेकर बन्धुओं (दामोदर चापेकर और बालकृष्ण चापेकर जो कि चितपावन ब्राह्मणों से सम्बन्धित थे) ने हत्या कर दी. रैण्ड की हत्या का तात्कालिक कारण उसका भारतीयों के प्रति प्लेग की स्थिति में अमानीय व्यवहार था.

उस समय जबकि पूना तथा आस-पास के क्षेत्रों में प्लेग फैला हुआ था, अंग्रेज सरकार ने प्लेग ग्रस्त लोगों की किसी भी प्रकार की सहायता करने के बजाय बहुत अधिक दुर्व्यवहार किए. तिलक ने तो यहां तक कहा कि

आजकल नगर में फैली प्लेग अपने मानवीय रूपान्तरों से अधिक दयालु है.” चापेकर बन्धुओं को फांसी की सजा दे दी गई तथा तिलक को भी सरकार विरोधी भड़काऊ लेख लिखने के जुर्म में 18 मास के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई.

1905 में कृष्ण वर्मा जो कि पश्चिमी भारत के काठियावाड़ प्रदेश के रहने वाले थे, ने लन्दन में ‘भारत स्वशासन समिति(India Home Rule Society) का गठन किया. जिसे इंडिया हाउस (India House) के नाम से भी जाना जाता था.

ऐसा माना जाता है कि मि. रैण्ड की हत्या के सिलसिले में कृष्ण वर्मा भी कुछ हद तक जिम्मेदार थे. उन्होंने एक मासिक पत्रिका ‘Indian Sociologist’ भी प्रारम्भ की. विदेश आने वाले योग्यता प्राप्त भारतीयों के लिए उन्होंने एक-एक हजार रुपये की 6 फैलोशिप (Fellowship) भी आरम्भ की ताकि वे बाहर जाकर राष्ट्र सेवा के काम में अपने आपको शिक्षित करें.

शीघ्र ही इण्डिया हाउस लन्दन में रहने वाले भारतीयों के लिए आंदोलन का एक केन्द्र बन गया. वी. डी. सावरकर, लाला हरदयाल और मदलनाल ढींगरा जैसे क्रान्तिकारी इसके सदस्य बन गए.

सावरकर बन्धुओं ने महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी आन्दोलन को संगठित करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी. उन्होंने गणपति उत्सव मनाने के लिए 1899 में मित्र मेला नामक एक सोसायटी की स्थापना की, जिसे 1906 में एक क्रान्तिकारी संगठन में बदल दिया गया और उसका नाम ‘अभिनव भारत समाज’ रखा गया.

1905 में जब स्वदेशी आंदोलन ने जोर पकड़ा तो वीर सावरकर ने पूना में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई. जिससे दक्षिण भारत में हलचल पैदा हो गई. 1909 में मदललाल ढींगरा ने कर्नल विलियम कर्जन वाइली (Col. William Curzon Wyllie) की, जो कि इण्डिया आफिस में राजनैतिक सहायक थे, गोली मार कर हत्या कर दी.

मदललाल ढींगरा पकड़े गये और उन्हें फांसी दे दी गई. सावरकर को बन्दी बना लिया गया और आजन्म निष्कासन का दण्ड सुनाया गया. ग्वालियर षड़यंत्र केस, नासिक षड़यंत्र केस तथा सतारा षड़यंत्र केस इन्हीं क्रान्तिकारी सभाओं से सम्बन्धित थे.

बंगाल में क्रान्तिकारी आन्दोलन (Revolutionary Movement in Bengal)

1905 की बंगाल विभाजन की अलोकप्रिय घटना के बाद बंगाल में नए सिरे से ऐसी राजनीतिक जागृति आई जो इससे पहले कभी नहीं देखी गयी थी. यह माना जा सकता है कि बंगाल आतंकवादी क्रान्तिकारी आंदोलन का केन्द्र बिन्दु था. बंगाल में क्रान्तिकारी आंदोलन का सूत्रपात ‘भद्रलोक समाज’ ने किया.

श्री पी. मित्रा तथा वरीन्द्र कुमार घोष एवं भूपेन्द्र दत्त आदि के सहयोग से 1907 में ‘अनुशीलन समिति‘ का गठन किया गया, जिसका प्रमुख उद्देश्य था खून के बदले खून.’ अंग्रेज विरोधी विचारों के प्रकाशन के लिए तथा क्रान्तिकारी कार्यों को संगठित करने के लिए 1905 में वरिन्द्र कुमार घोष ने ‘भवानी मन्दिर‘ नामक पुस्तिका का प्रकाशन किया.

इसके बाद ‘वर्तमान रणनीति नामक पुस्तिका तथा ‘युगान्तर‘ और ‘सन्ध्या‘ नामक पत्रिकाओं में भी अंग्रेज विरोधी विचार प्रकाशित किए जाने लगे. एक अन्य पुस्तक ‘मुक्ति कौन पाथे’ (मुक्ति किस मार्ग से?) में भारतीय सैनिकों से क्रान्तिकारियों को हथियार देने का आग्रह किया गया.

बंगाल के युवकों को शक्ति की प्रतीक भवानी की पूजा करने को कहा गया ताकि वे मानसिक, शारीरिक, आत्मिक तथा नैतिक बल प्राप्त कर सकें. कर्म करने पर भी जोर दिया गया.

क्रान्तिकारी हिसंक घटनाओं का आरंभ 1906 में हुआ, जब धन को व्यवस्था के लिए क्रान्तिकारियों ने डकैतियों की योजनाएं बनायी. 1907 में पूर्वी बंगाल तथा बंगाल के लेफ्टिनेन्ट गवर्ननरों की हत्याओं के असफल प्रयल किए गए.

प्रफुल्ल चाकी तथा खुदीराम बोस ने 30 अप्रैल, 1908 को न्यायाधीश किंग्जफोर्ड की हत्या का प्रयास किया, परन्तु गलती से बम श्री कनेडी की गाड़ी पर गिर गया जिससे दो महिलाओं की मृत्यु हो गई थी.

प्रफुल्ल चाकी तथा खुदीराम बोस पकड़े गए. प्रफुल्ल चाकी ने आत्महत्या कर ली तथा खुदीराम बोस को फांसी की सजा दी गई. रौलट कमेटी की रिपोर्ट ने 1906 और 1917 के मध्य में 110 डांके तथा हत्या के 60 प्रयत्नों का उल्लेख किया है.

अन्य प्रान्तों में क्रान्तिकारी आंदोलन (Revolutionary Movement in Other Provinces)

पंजाब में शिक्षित वर्ग क्रान्तिकारी विचारों से काफी प्रभावित हुआ. पंजाब सरकार ने सुझाव दिया था कि चिनाब नहरी तथा बारी दोआब नहरी बस्तियों में भूमिकर बढ़ाया जाना चाहिए. फलस्वरूप प्रदेश की ग्रामीण जनता में बहुत अधिक रोष जागा.

केन्द्र सरकार ने इस विधेयक को यद्यपि अपनी वीटो (Veto) शक्ति से रद्द कर दिया था परन्तु दो प्रमुख नेताओं लाला लाजपत राय तथा सरदार अजीत सिंह को बन्दी बना लिया गया.

दिसम्बर, 1912 में दिल्ली में लार्ड हार्डिंग के ऊपर उस समय बम फेंका गया जब वह राज यात्रा (State Entry) पर थे. इसमे वह बाल-बाल बचे.

मुख्य रूप से बिहार, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरपुर व निमेज हत्या काण्ड तथा बनारस में क्रान्तिकारी गतिविधिया सक्रिय रही.

विदेशों में क्रान्तिकारी आंदोलन (Revolutionary Movement, Abr0ad)

क्रान्तिकारियों ने विदेशों से भी भारत की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन का संचालन किया. लन्दन में श्यामजी कृष्ण वर्मा, वी. डी. सावरकर, मदन लाल धींगरा तथा लाला हरदयाल और यूरोप में मैडम भीकाजी कामा तथा अजीत सिंह प्रमुख सक्रिय नेता थे.

1905 में कृष्णवर्मा ने लन्दन में ‘इण्डियन होमरुल सोसायटी’ की स्थापना की, जो कि ‘इण्डिया हाउस‘ के नाम से प्रसिद्ध था. जल्दी ही इण्डिया हाउस लन्दन में भारतीय गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु बन गया. इसी समय एक मासिक पत्रिका ‘इण्डियन सोशियोलॉजिस्ट‘ का प्रकाशन भी किया गया.

8 जुलाई, 1909 को मदन लाल धींगरा ने इण्डिया आफिस के राजनीतिक सहायक सर विलियम कर्जन वायली की गोली मारकर हत्या कर दी. बाद में धींगरा को फांसी दे दी गई.

सावरकर को बन्दी बना लिया गया और आजन्म निष्कासन (Transportation for Life) का दण्ड सुनाया गया. श्याम जी भी लन्दन छोड़ कर पेरिस चले गये. फलस्वरूप इंडिया हाउस की गतिविधियां बन्द करनी पड़ी.

गदर आन्दोलन (Gadar Movement)

1 नवम्बर 1913 को लाला हरदयाल ने संयुक्त राज्य अमेरिका के सान फ्रांसिस्को नगर में गदर पार्टी की स्थापना की. इस संगठन ने ‘युगान्तर प्रेस‘ की स्थापना कर ‘गदर‘ नामक साप्ताहिक पत्र का सम्पादन भी किया. इस दल के अन्य प्रमुख नेता थे- रामचन्द्र, बरकबुल्ला, रास बिहारी बोस, राजा महेन्द्र प्रताप, अब्दुल रहमान एवं मैडम भीकाजी कामा. कुछ समय पश्चात अग्रेजों के कहने पर अमरीकी प्रशासन ने लाला हरदयाल के विरुद्ध मुकदमा बना दिया. फलस्वरूप उन्हें अमेरिका छोड़ना पड़ा.

लाला हरदयाल तथा उसके साथी बाद में जर्मनी चले गए. उन्होंने बर्लिन में भारतीय स्वतंत्रता समिति का गठन किया. इनका उद्देश्य था कि विदेशों में रहने वाले भारतीयों को भारत की स्वतंत्रता के लिए सभी सम्भव प्रयास करने चाहिए.

इनके प्रयास थे- भारत में स्वयं सेवकों को भेजकर भारतीय सैनिकों को विद्रोह के लिए तैयार करना, भारत में क्रान्तिकारियों के लिए विस्फोटक पदार्थ भेजना और सम्भव हो तो भारत पर सैनिक आक्रमण करना.

पंजाब में कामागाटा मारू काण्ड (Kormagata Maru Incident) ने विस्फोटक स्थिति उत्पन्न कर दी. एक सिख बाबा गुरदित्त सिंह ने एक जापानी जलपोत कामागाटा मारू को भाड़े पर लेकर कुछ पंजाबी सिक्खों व मुसलमानों को कनाडा के वेनकूवर नगर ले जाने का प्रयत्न किया ताकि वे विदेश में रहकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए योगदान कर सकें.

परन्तु कनाडा सरकार ने इन यात्रियों को अपने बन्दरगाह में उतरने की अनुमति नहीं दी और जहाज 27 सितम्बर, 1914 को पुनः कलकत्ता बन्दरगाह लौट आया. बाबा गुरूदित सिंह को गिरफ्तार करने का प्रयत्न किया गया, परन्तु वह भाग गए. शेष लोगों को विशेष रेलगाड़ी में वापस पंजाब लाया गया

और थोड़ी-बहुत औपचारिकताओं के बाद छोड़ दिया गया. इन लोगों को विश्वास था कि अंग्रेजी सरकार के दबाव के कारण हो कनाडा सरकार ने उन्हें वापस लौटने पर मजबूर किया. इन असन्तुष्टों तथा अन्य बहुत से लोगों ने लुधियाना, जालन्धर तथा अमृतसर में बहुत से डाके डाले जो कि पूर्ण रूपेण राजनीति से प्रेरित थे. अंग्रेजी सरकार ने स्थिति से निबटने के लिए अनेक कदम उठाये.

प्रथम विश्व युद्ध के अन्त में क्रान्तिकारी गतिविधियों में कुछ समय के लिए पूर्ण विराम आया, जब सरकार ने रक्षा अधिनियम के अधीन पकड़े गये राजनैतिक बन्दियों को रिहा कर दिया. साथ ही 1919 के अधिनियम द्वारा जो सुधार लागू किए गये उनसे सामान्य वातावरण बन गया था. इसी समय भारत की राजनीति में गांधी जी के आगमन से भी क्रान्तिकारी गतिविधियों में थोड़ा धीमापन आया.

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