महाराजा रणजीत सिंह और उसके उत्तराधिकारीः आंग्ल-सिख युद्ध (MAHARAJA RANJIT SINGH AND HIS SUCCESSORS: ANGLO-SIKH WARS)
महाराजा रणजीत सिंह (MAHARAJA RANJIT SINGH)
- महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 2 नवम्बर, 1780 को शुकरचकिया मिसल के मुखिया महासिंह के घर हुआ.
- 1760 के बाद से पंजाब में (बराबर के लोगों का संगठन) का प्रभाव बढ़ने लगा.
- किन्तु अठारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में सिख मिसलें विघटित होने लगी.
- रणजीत सिंह ने इस स्थिति का लाभ उठाया और शीघ्र ही तलवार के बल पर मध्य पंजाब में एक शक्तिशाली राज्य स्थापित कर लिया.
- 1799 में रणजीत सिंह ने लाहौर पर अधिकार कर लिया.
- 1805 में उसने अमृतसर पर भी अधिकार कर लिया.
- इस प्रकार वह सिखों का सबसे महत्वपूर्ण सरदार बन गया.
- उसने शीघ्र ही झेलम नदी से सतलुज नदी तक का समस्त प्रदेश अपने अधिकार में कर लिया.
डोगरों और नेपालियों से सम्बन्ध (Relationships with Dogrians and Nepalese)
- जिस समय महाराजा रणजीत सिंह पंजाब के मैदानी भागों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर रहा था उस समय कांगड़ा का डोगरा सरदार राजा संसार चन्द कटोच भी आस-पास के पहाड़ी क्षेत्रों में अपने प्रभुत्व का विस्तार कर रहा था.
- 1804 में संसार चन्द ने मैदानी भाग पर अपना ध्यान दिया तथा बजवाड़ा और होशियारपुर पर आक्रमण किया किन्तु रणजीत सिंह के हाथों पराजय स्वीकार की.
- कुछ समय बाद नेपाल के गोरखा सरदार अमरसिंह थापा ने कांगड़ा को घेर लिया.
- संसार चन्द गोरखों का सामना करने में सक्षम न था अतः उसने रणजीत सिंह से सहायता की याचना की.
- इस सहायता के बदले संसार चन्द ने उसे कांगडा का दुर्ग देने की भी पेशकश की.
- रणजीत सिंह की सेना ने शीघ्र ही गोरखों की सेना को कांगड़ा से भगा दिया.
- इस प्रकार कांगडा पर रणजीत सिंह का अधिकार हो गया और संसार चन्द रणजीत सिंह की सुरक्षा में आ गया.
अफगानों से संबंध (Relations with Afghanis)
- 1773 में अहमद शाह अब्दाली की मृत्यु के बाद अफगान सरदारों के मध्य झगड़े प्रारंभ हो गए.
- अब्दाली के पुत्र शाहशुजा ने काबुल का राज्य प्राप्त करने के लिए रणजीत सिंह से सहायता की याचना की किन्तु रणजीत सिंह सहायता के संबंध में कोई निश्चित आश्वासन न दे सका.
- अत: शाहशुजा ने कम्पनी का संरक्षण प्राप्त कर लिया.
- 1831 में शाहसुजा ने पुन: रणजीत सिंह से सहायता मांगी किन्तु रणजीत सिंह ने बहुत कठोर शर्ते उसके सम्मुख पेश की.
- 1834 में रणजीत सिंह ने पेशावर पर अधिकार कर लिया.
अंग्रेजों से संबंध (Relations with English)
- रणजीत सिंह पंजाब के समस्त भू-भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था.
- अतः उसने सतलुज के पार के प्रदेशों पर अधिकार करना शुरू किया.
- 1806 के अपने अभियान से उसे दौलधी नगर, पटियाला, लुधियाना, डक्खा, रायकोट, जगराओं और घुघराना आदि प्रदेश प्राप्त हुए.
- अगले वर्ष पुनः उसने सतलुज पार के प्रदेशों पर आक्रमण किया.
- इस बार इन प्रदेशों ने अंग्रेजों से सहायता प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली थी.
- अंग्रेज गवर्नर मैटकाफ ने रणजीत सिंह को सलाह दी कि वह सतलुज पार के प्रदेशों पर अपना अधिकार छोड़ दे.
- किन्तु 1808 में रणजीत सिंह ने मैटकाफ की सलाह को धत्ता बताते हुए पुनः सतलुज पार किया तथा फरीदकोट मालेरकोटला और अम्बाला पर अधिकार कर लिया.
- किन्तु 1809 में अमृतसर की संधि के बाद रणजीत सिंह यह स्वीकार करने के लिए बाध्य हो गया कि सतलुज पार के प्रदेशों पर अंग्रेजों का अधिकार है.
- इस संधि के बाद यद्यपि महाराजा को पश्चिम में अपने राज्य का विस्तार करने के लिए खुली छूट मिल गई और उसने 1818 में मुल्तान, 1819 में कश्मीर और 1834 में पेशावर पर अधिकार कर लिया किन्तु इस संधि ने परोक्ष रूप से यह भी सिद्ध कर दिया कि रणजीत सिंह अग्रेजों का सामना करने में समर्थ नहीं है.
- आगे चलकर सिंध और फिरोजपुर के संबंध में भी उसने अपनी असमर्थता ही प्रकट की.
रणजीत सिंह का प्रशासन (Administration of Ranjit Singh)
- रणजीत सिंह ने एक केन्द्रोन्मुखी प्रशासन की स्थापना की.
- उसके प्रशासन में महाराजा ही समस्त प्रशासनिक और राजनीतिक शक्तियों का केन्द्र था.
- वह अपने आप को खालसा का सेवक मानता था.
- उसने अपनी सरकार को सरकार-ए-खालसा जी का नाम दिया.
- महाराज की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद् भी थी.
- उसने अपने राज्य को प्रान्तों में बांट रखा था.
- प्रत्येक प्रान्त एक नाज़िम के अधीन होता था.
- प्रान्तों को जिलों में बांटा गया था.
- प्रत्येक जिला एक कारदार के अधीन होता था.
- गांवों में पंचायतें कार्य करती थीं.
भूमि कर व्यवस्था (Land Revenue System)
- भूमिकर सरकार की आय का प्रमुख स्रोत था.
- भूमिकर के रूप में सरकार उत्पादन का 33 प्रतिशत से 40 प्रतिशत तक लेती थी.
- यह भूमि की उर्वरता पर निर्भर था.
न्याय व्यवस्था (Judicial System)
- रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था में न्याय एक स्थानीय प्रश्न था न कि देश का.
- स्थानीय प्रशासक स्थानीय परम्पराओं के अनुसार न्याय करते थे.
- लाहौर में एक “अदालत-ए-आला” (उच्चतम न्यायालय) की स्थापना की गई थी.
- इस न्यायालय में प्रान्तीय और जिला न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध अपील की जा सकती थी.
- दण्ड के रूप में अपराधियों पर बड़े-बड़े जुर्माने किए जाते थे.
- इस प्रकार न्याय सरकार की आय का एक बड़ा साधन भी था.
सैन्य प्रणाली (Military System)
- रणजीत ने सर्वाधिक ध्यान अपनी सैन्य व्यवस्था पर दिया.
- उसने अपनी सेना का संगठन कम्पनी के नमूने पर किया.
- उसने मुख्यत: फ्रांसीसी कमाण्डरों की सहायता से अपनी सेना के गठन, ड्रिल और अनुशासन का प्रबंध किया.
- उसने तोपखाने पर भी समुचित ध्यान दिया.
- लाहौर और अमृतसर में तोपें, गोला एवं बारूद बनाने के कारखाने स्थापित किए गए.
- रणजीत सिंह ने सेना में मासिक वेतन देने की प्रणाली आरंभ की.
- इस प्रणाली को “माहदारी” कहा जाता था.
- 1822 में जनरल वन्तुरा और अलार्ड ने एक विशेष आदर्श सेना का गठन किया.
- इसे ‘फौज-ए-खास’ कहते थे.
- इस सेना का एक विशेष चिन्ह होता था.
मूल्यांकन (Evaluation)
- भारत के इतिहास में रणजीत सिंह का उल्लेखनीय महत्व है.
- एक शासक के रूप में उसने सदैव जनहित पर ध्यान दिया.
- उसने तलवार के बल पर पंजाब के मध्य भाग में अपने राज्य की स्थापना की परन्तु रणजीत सिंह को एक रचनात्मक और कुशल राजनीतिज्ञ नहीं कहा का सकता.
- उसने अपने कठिन परिश्रम के बाद जो राज्य बनाया था वह उसकी मृत्यु के बाद 10 वर्ष के भीतर ही समाप्त हो गया.
- इसका प्रमुख कारण यह था कि उसने शासन की समस्त शक्तियाँ अपने में इतनी अधिक केन्द्रित कर ली थी कि उसकी मृत्यु के बाद इस केन्द्रीकृत व्यवस्था को कोई संभाल न सका.
रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी (Successors of Ranjit Singh)
- रणजीत सिंह पंजाब में एक स्थायी सिख राज्य की स्थापना न कर सका.
- जून, 1839 में उसकी मृत्यु के बाद राज्य में अराजकता फैल गई और वास्तविक शक्ति खालसा सेना के हाथ में चली गई.
- रणजीत सिंह के बाद उसके अयोग्य पुत्र खड़गसिंह को गद्दी पर बीठाया गया.
- ध्यानसिंह को उसका वज़ीर बनाया गया.
- अक्टूबर-नवम्बर, 1839 में ध्यानसिंह ने खड़गसिंह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया.
- खड़गसिंह को बन्दी बना लिया गया और उसके पुत्र नौनिहाल सिंह को गद्दी पर बिठाया गया.
- ध्यान सिंह अब नौनिहाल सिंह का वजीर बन गया.
- जनवरी, 1841 में पुनः राजा के विरुद्ध विद्रोह किया गया और महाराजा रणजीत सिंह के एक अन्य पुत्र शेरसिंह को गद्दी पर बिठाया गया.
- सितम्बर, 1843 में अजीत सिंह सन्धावालिया ने शेरसिंह की हत्या कर दी.
- सितम्बर, 1843 में ही महाराजा राणजीत सिंह के एक अन्य अल्पवयस्क पुत्र दलीपसिंह को गद्दी पर बिठाया गया.
आंग्ल-सिख युद्ध
पहला आंग्ल-सिख युद्ध, 1845-46 (First Anglo-Sikh War, 1845-46)
- अफगान संघर्ष में अपनी पराजय के बाद अंग्रेज यह चाहते थे कि सिंध की तरह पंजाब का भी में विलय कर लिया जाए.
- 1844 में लार्ड हार्डिंग गवर्नर जनरल बना.
- उसने पंजाब की राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर पंजाब की सीमाओं को सैनिक छावनियों में बदल दिया.
- शीघ्र ही खालसा सैनिक यह समझ गए कि अंग्रेज उनसे युद्ध करना चाहते हैं.
- काफी समय तक युद्ध के सम्बन्ध में अनिश्चितता की स्थिति बनी रही.
- अन्तत: इस संबंध में सबराओं की लड़ाई (10 फरवरी, 1846) निर्णायक सिद्ध हुई.
- लालसिंह और तेजासिंह के विश्वासघात के कारण खालसा सेना की पराजय हुई.
- अंग्रेजों का लाहौर पर अधिकार हो गया.
लाहौर की संधि 9 मार्च, 1846
- खालसा सेना की पराजय के बाद महाराजा को लाहौर की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया गया.
- इस संधि के अनुसार
- महाराजा ने स्वयं और अपने उत्तराधिकारियों की ओर से सतलुज के पार के अपने समस्त प्रदेश सदैव के लिए अंग्रेजों को दे दिए.
- सतलुज और व्यास नदियों के मध्य स्थित सभी दुर्गों पर कम्पनी का अधिकार हो गया.
- सिखों को डेढ़ करोड़ रुपया युद्ध के दण्ड के रूप में देना पड़ा.
- महाराजा की सेना 12,000 घुड़सवार और 20,000 पदाति तक ही सीमित कर दी गई.
- महाराजा कम्पनी की अनुमति के बिना किसी यूरोपीय को अपनी सेवा में नहीं रख सकता था.
- अल्पवयस्क दलीपसिंह को महाराजा के रूप में स्वीकार किया गया.
- सर हेनरी लॉरेन्स को लाहौर में कम्पनी का रेजीडेन्ट नियुक्त किया गया.
- कुल मिलाकर उक्त संधि के संबंध में यह कहा जा सकता है कि इस संधि के द्वारा पंजाब को इतना शक्तिहीन कर दिया गया कि उसका ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल होना केवल समय का प्रश्न ही रह गया था.
दुसरा आंग्ल-सिख युद्ध, 1848-49 (Second Anglo-Sikh war, 1848-49)
- यद्यपि लाहौर की संधि के प्रावधानों के तहत ब्रिटिश सेना को 1846 के अंत तक लौट जाना था किन्तु महाराजा के अल्पव्यस्क होने के बहाने लार्ड हार्डिंग ने सेना को यथावत् बनाए रखा.
- महाराजा की अल्पावस्था के कारण पंजाब का शासन अंग्रेजों के द्वारा चलाया जाने लगा.
- इसी प्रकार लाहौर पर अंग्रेजी रेजीडेन्ट का प्रभुत्व स्थापित हो गया.
- 1846 में मुल्तान के गवर्नर मूलराज को 20 लाख रुपया और रावी नदी के उत्तर का प्रदेश कम्पनी को सौंपने के लिए बाध्य किया गया.
- अंग्रेजों की इस मांग से खिन्न होकर मूलराज ने दिसम्बर 1847 में इस्तीफा दे दिया.
- जनवरी, 1848 में लार्ड डलहौजी ने भारत के गवर्नर जनरल के रूप में कार्यभार संभाला.
- वह एक साम्राज्य वादी गवर्नर जनरल था.
- मार्च, 1848 को काहन सिंह को मुल्तान का गवर्नर नियुक्त किया गया.
- कार्यभार संभालने में सहायता करने के लिए दो अंग्रेज अधिकारी भी उसके साथ भेजे गए.
- इन अधिकारियों के निरंकुश व्यवहार के कारण मुल्तान के लोगों ने विद्रोह कर दिया.
- शीघ्र ही विद्रोह की ज्वाला सारे पंजाब में फैल गई.
- अंग्रेज भी यही चाहते थे कि विद्रोह सारे प्रान्त में फैल जाए ताकि उन्हें पंजाब को अपने साम्राज्य में मिलाने का बहाना मिल जाए.
- अत: अवसर का लाभ उठाते हुए लार्ड डलहौजी ने अक्टूबर, 1848 में विद्रोहियों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी.
- जनवरी, 1849 तक पंजाब ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया.