शेरशाह सूरी और उसके उत्तराधिकारी (Sher Shah Suri and his successor)
शेरशाह सूरी
- शेरशाह का असली नाम फरीद था.
- उसका जन्म 1472 ई. में पंजाब में हुआ था.
- उसके पिता हसन खाँ की चार पत्नियाँ और आठ पुत्र थे.
- उसे अपनी सौतेली माँ और पिता से उसे सच्चा स्नेह प्राप्त नहीं हुआ.
- 1494 ई. में वह सहसराम (बिहार) छोड़कर जौनपुर चला गया.
- वहाँ उसने अरबी और फारसी की पुस्तकों-गुलिस्ताँ, बोस्ताँ, सिकन्दरनामा आदि का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया.
कुशाग्रबुद्धि होने के कारण वह अपने पिता के आश्रयदाता जमात खाँ का विश्वास पात्र बन गया. 1497 ई. में उसके पिता ने उसे सहसराम तथा ख्यासपुर के परगने का प्रबन्धक नियुक्त किया. यह क्षेत्र 1518 ई. तक उसके अधिकार में रहे.
लुहानी के यहां सेवा
- अपनी सौतेली माँ की ईष्र्या के प्रकोप से फरीद को एक बार पुनः घर से निकाल दिया गया.
- फरीद ने बिहार के सुल्तान बहार खाँ लुहानी के यहां सेवा प्राप्त कर ली.
- एक बार शिकार पर गए लुहानी के साथ फरीद ने एक शेर मारा.
- उसकी बहादुरी से प्रसन्न होकर लुहानी ने उसे शेर खाँ की उपाधि दी.
- लुहानी अमीरों एवं अन्य अफगान सरदारों ने शेर खाँ के विरुद्ध बहार खाँ लुहानी के कान भरने शुरू कर दिए .
- फलस्वरूप शेर खाँ को निकल दिया गया.
मुगलों की नौकरी
- 1527 ई. में शेर खाँ ने मुगलों की नौकरी कर ली.
- इस दौरान उसने मुगलों के प्रशासन और सैनिक संगठन के दोषों का अध्ययन किया.
- 1528 ई. में उसने मुगलों की नौकरी छोड़ दी.
- तब उसने दक्षिण बिहार के जलाल खाँ के रक्षक व शिक्षक के रूप में नौकरी की.
बिहार का नायब-सूबेदार या वकील
- 1528 ई. में बिहार के शासक की मृत्यु के पश्चात् शेर खाँ वहां का नायब-सूबेदार या वकील नियुक्त किया गया.
- कालान्तर में हुमायूँ के साथ उसका संघर्ष हुआ और 1540 ई. में वह दिल्ली की गद्दी पर बैठा.
- मुगलों को सहायता देने वाले ‘गक्खरों‘ को शेरशाह सूरी इनकी कुचलना चाहता था.
- 1541 ई. में शेरशाह सूरी ने गक्खरों के विरुद्ध एक अभियान छोड़ा.
- इस अभियान में वह गक्खरों की शक्ति को पूर्णतया नष्ट तो नहीं कर सका, किन्तु कम करने में अवश्य सफल हुआ.
- भारत की उत्तर-पश्चिम की रक्षा हेतु शेरशाह सूरी ने ‘रोहतास गढ़‘ नामक दुर्ग बनवाया तथा वहां पर हैबस खाँ तथा खवास खाँ के नेतृत्व में अफगान सेना की टुकड़ी नियुक्त की.
- 1542 ई. में शेरशाह ने मालवा पर आक्रमण किया तथा इसे जीत लिया.
- इसके चलते ग्वालियर के किले के राज्यपाल ने भी आत्मसमर्पण कर दिया.
रायसीन शासक पूरनमल
- 1542 ई. में रायसीन के शासक पूरनमल ने शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली थी, किन्तु शेरशाह को सूचना मिली कि पूरनमल मुस्लिम लोगों से अच्छा व्यवहार नहीं करता.
- अतः 1543 ई. में शेरशाह की सेनाओं ने रायसीन को घेर लिया.
- पूरनमल व उसके सैनिक बड़ी वीरता से लड़े.
- शेरशाह ने चालाकी से काम लिया तथा पूरनमल को उसके आत्मसम्मान एवं जीवन की रक्षा का वायदा करके आत्मसमर्पण हेतु तैयार कर लिया.
- किन्तु मुस्लिम जनता के आग्रह पर शेरशाह ने राजपूतों के खेमों को चारों ओर से घेर लिया.
- राजपूत जी-जान से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए.
- शेरशाह की पूरनमल और उसके परिवार के साथ व्यवहार करने के ढंग की बड़ी निन्दा की गई है.
- डा. ईश्वरी प्रसाद लिखते है कि शेरशाह अपने शत्रु के प्रति, जिसने अपनी दुर्दशा में उस पर विश्वास किया हो, अमानुषिक क्रूरता का व्यवहार करता था.
- 1543 ई. में हैवत खाँ के नेतृत्व में अफगान सेना ने मुल्तान तथा सिन्ध को जीत लिया.
मालदेव के विरुद्ध अभियान
- सन् 1544 ई. में शेरशाह ने जोधपुर के शासक मालदेव के विरुद्ध अभियान छेड़ा.
- मालदेव हुमायूँ को संरक्षण देना चाहता था, किन्तु शेरशाह ने उसे सचेत कर दिया.
- अतः मालदेव शेरशाह और हुमायूँ दोनों को ही रुष्ठ होने का अवसर न देकर तटस्थ रहा.
- शेरशाह मालदेव के व्यवहार से असन्तुष्ट था . और उसको दण्ड देना चाहता था.
- शेरशाह ने मालदेव के विरुद्ध 1543 ई. में . युद्ध आरम्भ कर दिया. वह मालदेव पर सरलता से विजय न पा सका .
- अन्त में शेरशाह ने मालदेव और उसके अनुयायियों के मध्य फूट डलवा कर उसे पराजित किया.
- युद्ध इतना घोर था कि शेरशाह ने इस प्रकार की घोषणा की-
“मैंने एक मुठ्टी भर बाजरे के लिए हिन्दुस्तान का साम्राज्य लगभग खो दिया था.”
कालिन्जर का अभियान
- कालिन्जर का अभियान (बुन्देलखण्ड) (1545 ई.) शेरशाह का अन्तिम सैन्य अभियान था.
- यहाँ के शासक कीरत सिंह ने शेरशाह के आदेश के विरुद्ध ‘वीरों के शासक वीरभान को संरक्षण दिया था.
- नवम्बर 1544 ई. को शेरशाह ने कालिंजर के किले को घेरा. छह महीने तक किले को घेरे में रखा.
- अन्त में शेरशाह ने गोला बारूद से किले की दीवर को तोड़ने का आदेश दिया.
- यह माना जाता है कि 22 मई, 1545 ई. को किले की दीवार से टकरा कर लौटे एक गोले के विस्फोट से शेरशाह की मृत्यु हो गई.
- इतिहासकार कानूनगो के अनुसार-
”इस प्रकार एक महान् राजनीतिज्ञ एवं सैनिक का अन्त अपने जीवन की विजयों एवं लोकहितकारी कार्यों के मध्य में ही हो गया.”
शेरशाह सूरी का प्रशासन
- डॉ. कानूनगो के अनुसार शेरशाह सूरी में स्वयं अकबर से भी अधिक रचनात्मक प्रतिभा थी .
- इतिहासकार डॉ. त्रिपाठी तथा डॉ. सरन के अनुसार शेरशाह केवल एक सुधारक था और किसी नवीन पद्धति का प्रचलन करने वाला नहीं था.
- परन्तु अन्य इतिहासकारों का मानना है कि शेरशाह सूरी का शासन केवल सामंत नौकरशाही ही नहीं, अपितु पक्षपात रहित और प्रभावशाली था.
- प्रशासन में शेरशाह को विभिन्न मन्त्रालयों द्वारा सहायता प्राप्त होती थी.
- ये मंत्रालय थे –
दीवाने वजारत
- देश की आय और व्यय दोनों इसके अधीन थे. सामान्यतः यह अन्य मन्त्रालयों की देखभाल भी करता था.
दीवाने-आरीज
- यह दीवाने ममालीक के अधीन था. वह सेना का अनुशासन प्रबन्ध, भर्ती व वेतन सम्बन्धी कार्य करता था.
दीवाने-रसालत
- यह विदेश मन्त्रालय था.
- राजदूतों और राजप्रतिनिधि मण्डलों से सम्पर्क स्थापित करना तथा राजनैतिक पत्र-व्यवहार सम्बन्धी कार्य भी यही करता था.
दीवाने-इंशा
- यह शाही घोषणा-पत्र और सन्देशों का रिकार्ड रखता था तथा सरकारी अभिलेखों का कार्य-भारी था.
- राज्यपालों तथा अन्य स्थानीय अधिकारियों से पत्र-व्यवहार यही करता था.
दीवाने-काजी
- यह विभाग मुख्य काजी के अधीन था.
- सुल्तान के पश्चात् वह राज्य के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य करता था.
दीवाने-वरीद
- यह राज्य की डाक-व्यवस्था एवं गुप्तचर विभाग की देखभाल किया करता था.
शेरशाह सूरी का प्रान्तीय प्रशासन
- शेरशाह के प्रान्तीय प्रशासन के सम्बन्ध में विद्वानों के अलग-अलग मत हैं.
- डॉ. कानूनगो के अनुसार देश का सबसे बड़ा खण्ड ‘सरकार’ था तथा प्रान्त अकबर महान् के आविष्कार थे.
- डॉ. सरन ने इस मत का खण्डन किया है.
- यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे प्रशासकीय खण्ड थे, जो प्रान्तों से मिलते-जुलते थे.
- डॉ. ए.बी. पाण्डेय के अनुसार जिन राज्यों को शासन करने की स्वतन्त्रता दे दी गई थी, उन्हें सूबा या इक्ता कहा जाता था.
- सूबे का प्रमुख हाकिम, अमीन अथवा फौजदार होता था.
- पंजाब के हाकिम हैबत खाँ को ‘मनसद-ए-आलम’ की उपाधि दी गई थी.
- फिर भी शेरशाह के प्रान्तीय शासन का वितरण स्पष्ट नहीं है और उसके अधिकारियों की नियुक्ति की रीतियों और नामों का उल्लेख करना सम्भव नहीं है.
सरकार
- प्रान्त आगे सरकारों में बंटे हुए थे.
- सरकार के दो मुख्य अधिकारी थे—
- मुन्सिफे-मुन्सिफान (न्यायाधीश) तथा
- शिकदारे-शिकदारान (शान्ति-व्यवस्था स्थापित करना व परगनों के शिकदारों के कार्यों का निरीक्षण करना).
परगना
- सरकार परगनों में विभाजित थे. परगना का शासन एक मुन्सिफ, एक फोतदार (खजांची) तथा दो कारकुन (लिपिक) की सहायता से चलता था.
ग्राम
- ग्राम या गाँव शासन की सबसे छोटी इकाई थी, जिसका प्रवन्ध वहाँ के प्रधान, पटवारी आदि करते थे.
सैन्य-व्यवस्था
- शेरशाह ने सेना के बल पर ही समस्त उत्तरी भारत पर अधिकार किया था.
- उसने एक शक्तिशाली, अनुशासित व सु-संगठित सेना की व्यवस्था की.
- उसने सैनिकों की भर्ती व प्रशिक्षण आदि में व्यक्तिगत रुचि ली और घोड़ों को दागने और सैनिकों का हुलिया दर्ज करने की प्रथा को पुनः प्रचलित किया.
- उसने अश्वारोही टुकड़ी को बहुत महत्व दिया.
वित्त प्रबन्ध
- शेरशाह ने राज्य की आय के साधनों में वृद्धि करने का भरसक प्रयास किया.
- राजस्व, जजिया, वाणिज्य, टकसाल, उपहार,नमक, चुंगी, खम्स आदि राज्य की आय के साधन थे.
- अमीरों को भी राजा को भेंट देनी पड़ती थी.
- किन्तु भू-राजस्व आय का प्रमुख साधन था.
राजस्व-प्रशासन
- शेरशाह ने समस्त भूमि की नपाई करवा कर उसको वर्गीकरण करवाया.
- पैदावार का एक तिहाई भाग भूमिकर निश्चित किया .
- सम्भवतः भू-राजस्व की तीन प्रथाएं प्रचलित थीं-
- गल्ला बख्शी या बटाई के तीन प्रकार थे-खेत बटाई, लंक बटाई और रास बटाई,
- नस्क या मकतई या कनकुट,
- नकदी या जाती या जमई.
- किसानों और फसल की सुरक्षा का विशेष ध्यान दिया जाता था.
- लगान नकद या अनाज दोनों रूपों में लिया जा सकता था.
पुलिस
- आन्तरिक शान्ति स्थापित करने हेतु शेरशाह ने एक सुव्यवस्थित पुलिस विभाग की स्थापना की.
- उसने उच्चकोटि की सुसंगठित गुप्तचर व्यवस्था की स्थापना भी की.
मुद्रा
- शेरशाह ने मुद्रा में विशेष सुधार किया.
- उसने एक नया सिक्का ‘दाम’ प्रचलित किया.
- उसने पुराने और धातु मिश्रित सिक्कों को समाप्त कर दिया.
- सिक्कों पर देवनागरी लिपि में नाम लिखे गए.
- उसने सोने, चाँदी तथा तांबे के सिक्के चलाए .
- ‘दाम’ और रुपये में विनिमय अनुपात 64 : 1 निश्चित किया गया.
व्यापार
- व्यापार को प्रोत्साहन देने हेतु शेरशाह ने ‘आयात कर’ और ‘बिक्री कर’ के अतिरिक्त सभी आन्तरिक करों को समाप्त कर दिया.
सड़कें तथा सराये
- शेरशाह ने व्यापार, यातायात तथा डाक सुविधा हेतु अनेक सड़कों और सरायों का निर्माण करवाया.
- उसके द्वारा निर्मित कराई गई सड़कें थीं
- बंगाल से सिन्ध तक जाने वाली ग्रांड ट्रंक रोड (G.T. Road) .
- आगरा से बुरहानपुर .
- आगरा से मारवाड़.
- लाहौर से मुल्तान.
- शेरशाह ने लगभग 1,700 सरायों का निर्माण करवाया.
- इनमें हिन्दू तथा मुस्लिमों के ठहरने की अलग-अलग और उत्तम व्यवस्था की गई.
- इनका प्रबन्ध शिकदार करता था.
दान तथा अस्पताल
- शेरशाह ने अनेक दानशालाओं और औषधालयों का निर्माण करवाया.
- उसके समय सरकारी भोजनालय का प्रतिदिन का व्यय 500 अशर्फी था.
शिक्षा
- पाठशालाओं को उसने आर्थिक सहायता प्रदान की तथा प्रत्येक मस्जिद में मकतबों की स्थापना करवाई.
- निर्धन छात्रों के लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था भी की गई.
साहित्य, कला एवं भवन
- शेरशाह के काल में मुहम्मद जायसी ने ‘पदमावत‘ की रचना की.
- उसने अनेक इमारतों यथा-रोहतासगढ़ का दुर्ग, सहसराम में झील के अन्दर ऊँचे टीले पर स्थापित मकबरे आदि का निर्माण करवाया.
- उसने दीनपनाह को तुड़वाकर पुराने किले (दिल्ली में) का निर्माण करवाया.
- किले के अन्दर उसने ‘किला-ए-कुहना’ का निर्माण करवाया.
- उसने कन्नौज नगर को समाप्त करके ‘शेरसूर’ नामक नगर की स्थापना करवाई.
शेरशाह के उत्तराधिकारी
- शेरशाह की अचानक मृत्यु हुई थी तथा उसके दो पुत्र आदिल और जलाल वहाँ पर उपस्थित नहीं थे.
- जलाल खाँ जो उसका छोटा पुत्र था वहाँ पहले पहुंचा और अमीरों ने उस राजा घोषित कर दिया.
- जलाल खाँ ने इस्लाम शाह की उपाधि धारण करके सिंहासन सम्भाला.
इस्लाम शाह (1545-53 ई.)
- इस्लाम शाह योग्य व शक्तिशाली था, परन्तु वह स्वभाव से अविश्वासी व्यक्ति था.
- अमीर उसके विरुद्ध हो गए और इस्लामशाह के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने लगे.
- ख्वास खाँ तथा इस्लाम शाह का भाई आदिल खाँ पराजित होकर भाग गए तथा षड्यन्त्रकारियों को इस्लाम शाह ने कठोर दण्ड दिए.
- अपने पिता की भांति इस्लाम शाह का शासन भी व्यक्तिगत योग्यता पर आधारित था.
- परन्तु उसमें शेरशाह के गुणों का अभाव था.
- उसने एक-एक करके अमीरों को कुचलने का प्रयत्न किया.
- वह पूर्णतया अप्रिय था, फिर भी अपनी चारित्रिक शक्ति के सहारे राज करता रहा.
- उसने अपनी निर्दयता और शक्ति द्वारा शत्रुओं के हृदयों में भय उत्पन्न कर दिया.
- उसकी नीति अफगानों की राष्ट्रीय एकता को छिन्न-भिन्न करने के लिए उत्तरदायी थी.
- इस्लाम शाह ने सैन्य शक्ति को संगठित करने की ओर अधिक ध्यान दिया.
- उसने तोपखाने को शक्तिशाली बनाया तथा शेरगढ़, इस्लामगढ़, रशीदगढ़, फिरोजगढ़ नामक किलों का निर्माण करवाया.
- डॉ. त्रिपाठी के अनुसार यदि इस्लाम शाह जिन्दा रहता तो इस बात में सन्देह है कि हुमायूँ अपने खोए हुए साम्राज्य को फिर से जीतने का साहस करता.
मोहम्मद आदिल (1553-57 ई.)
- इस्लाम शाह की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र फिरोज सिंहासन पर बैठा.
- किन्तु मुबारिज खाँ ने उसकी हत्या कर दी व स्वयं मोहम्मद आदिल की उपाधि धारण करके सिंहासन पर बैठा.
- ऐलफिंस्टन के अनुसार “वह नितान्त मूर्ख, व्यभिचारी और नीच समाज का प्रिय था और वह अपने पापों और चरित्रहीनता दोनों के ही कारण प्रजा के लिए घृणा का पात्र था.”
- उसके प्रधानमंत्री ‘हेमू’ ने, जो रेवाड़ी की ‘धूसर’ जाति से सम्बन्धित था, अपनी योग्यता द्वारा उच्चपद प्राप्त करके अपने स्वामी को विश्वासपात्र बन गया.
- उसने ‘‘बड़ी नीचतापूर्ण चालाकी’ द्वारा ‘‘विक्रमाजीत” की उपाधि धारण कर ली.
- देश में असन्तोष फैला हुआ था तथा षड्यन्त्र व राजद्रोह व्याप्त था.
- राजा के भतीजे सिकन्दर सूर ने दिल्ली, आगरा, मालवा, पंजाब और बंगाल पर अधिकार कर लिया तथा मोहम्मद आदिल के अधीन केवल गंगा के पूर्वस्थित प्रान्त ही रह गए.
- पाँच अफगान राजा प्रभुत्व के लिए संघर्ष कर रहे थे ये थे-
- बिहार व जौनपुर आदि में मोहम्मद शाह,
- दिल्ली व समस्त दोआब में इब्राहिम,
- पंजाब में अहमद खाँ सूर (उसने सिकन्दर शाह की उपाधि धारण की),
- बंगाल में मोहम्मद खाँ (उसने सुल्तान मोहम्मद की उपाधि धारण की),
- मालवा में सुजात खाँ का पुत्र दौलत खाँ..
- ऐसी परिस्थितियों में हुमायूँ ने सिकन्दर सूर को पराजित करके दिल्ली पर अधिकार कर लिया.
- इस प्रकार दूसरे अफगान साम्राज्य का अन्त हो गया.